कवितालयबद्ध कविता
' मरती जा रही संवेदना '
अंतर्मन से नेह मिट रही,दिखती नहीं दया करुणा।
हर हिय हर क्षण रो रहा, मर सी गई है संवेदना।।
अन्धकार से हर उर अंधित, जोत दिखे न जीवन की।
प्यासा मृग सा भटके प्राणी, प्यास मुझी न हर मन की।।
कहलाने को मददगार यहां,मगर स्वार्थी बड़े सभी।
निज हित के कर कार्य करें, भूले भला किसी का कभी।।
परिवारों में द्वंद छिड़ा है, बलि चढ़ रहे सभी बुजुर्ग।
शून्य सभी की संवेदना है,फिर भी इच्छा मिले स्वर्ग।।
संवेदना ही मानव को यहां,मानव बनाकर रखती है।
वरना जानवरों की कमी कहां,जो अज्ञानता में जीती है।
हृदय कलुषता मिटा सभी,यहां एक दूजे से प्रेम करें।
सहानुभूति हो पर पीड़ा में,सुख दुख अनुभव सेम करें।।
-आशुतोष त्रिपाठी 'आलोक '
अयोध्या, उत्तर प्रदेश।
अतिसुन्दर....
बहुत बहुत धन्यवाद आपका 🙏🏻🙏🏻