Help Videos
About Us
Terms and Condition
Privacy Policy
मन ख्वाहिशों का जंगल - सोभित ठाकरे (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

मन ख्वाहिशों का जंगल

  • 248
  • 4 Min Read

मन जो ख्वाहिशों का जंगल है
इस जंगल अभ्यंतर
कभी मनमौजी मंगल है
तो कभी रौद्र रूपी दंगल है
आन खड़ी होती निज द्वार
अंगड़ाई लिए ख्वाहिशें नई
न भेदे हालात
न देखे दिन -रात गति
भ्रमर सी करती गुंजायमान कभी
तितलियों सी चंचल हो मचलती
दूर देश के पंछी सी
इस छोर से उस भोर को टहलती
ओढ़े कभी बैचेनियों की चादर लिए
सपनों की ताबीर बुनती
पल -प्रतिपल सिलवटें अपनी
चाहतें बदलती
क्यों नहीं पाती ये ठहराव कोई ?
उद्दीप्त हो जाती बुझी ख्वाहिशें भी
जो होती अधूरी सी
दर्द देती ,
कचोटती तो रूह को पर शोर न करती
अफ़सोस के पीछे छिप जाती
मन में बस रह जाती उदासीनताएँ
कितनी ही बार घेरा डाला
वन में पसरे सन्नाटे सा इस गहन तिमिर ने
हारा हुआ भी पाया ,
फिर भी बिन सींचे
गुलों सी महक उठती हैं
अरण्य अभिलाषाएं
देती ईहा को शीतल बयार रूप नया
जंगल में उपजे तरुवर और लताएँ

logo.jpeg
user-image
Naresh Gurjar

Naresh Gurjar 3 years ago

बहुत खूब मैम

सोभित ठाकरे3 years ago

धन्यवाद जी

वो चांद आज आना
IMG-20190417-WA0013jpg.0_1604581102.jpg
तन्हाई
logo.jpeg
प्रपोजल
image-20150525-32548-gh8cjz_1599421114.jpg
माँ
IMG_20201102_190343_1604679424.jpg