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लागे ना मोरा जिया - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

लागे ना मोरा जिया

  • 201
  • 5 Min Read

शीर्षक
लागे ना मेरा जिया

क्यूँ जा बसे परदेस सजन
कोई चिट्ठी ना भेजा संदेस
सुध बुध मैं भूली पिया
कहीं लागे ना मेरा जिया

सुबह सुहानी नहीं लगती
ना रात रूहानी है लगती
हर पल तेरी ही यादों में
तन्हा तन्हा बस गुज़रते हैं

ये सावन सुहाना आकर के
मुझे और तपाकर जाता है
मन के बादल घुमड़ करके
मेरे नयनों को छलका जाते

बासंती बहारें जब भी आती
और चमन को महका जाती
जीवन की उजाड़ बगिया को
पतझड़ सी बिखरा जाती है

बागों के रंगीन नज़ारे
आँखों को खटकते हैं
पत्ता पत्ता व जर्रा जर्रा
तेरी ही याद दिलाते हैं

जब घर अपना सजाती
हर कोने में तुझको पाती
तेरी चीज़ें सहला कर छूती
टीस सी मन में है उठती

तस्वीर तेरी जो मैं देखूं
आँखों से बहते हैं आँसू
तेरे मेरे बीच ओ प्रियतम
ज्यों कोहरा छा जाता है

तुझसे रोशन मेरी दुनिया
मेरे दिल का तू उजाला है
बिन तेरे सनम मेरी पूनम
अमावस ही बन जाती है

मीरा सी मैं दीवानी हूँ
नाम तेरा ही जपती रही
कृश्णा के संग जो रहती
वो राधा मैं ना बन पाई

ख़्वाबों के झरौखों में मेरे
पिया तू ही तू नज़र आता
गर मिट जाऊँ तेरे गम में
चूनर फूलों की ओढा देना
सरला मेहता

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