कविताअतुकांत कविता
शीर्षक
लागे ना मेरा जिया
क्यूँ जा बसे परदेस सजन
कोई चिट्ठी ना भेजा संदेस
सुध बुध मैं भूली पिया
कहीं लागे ना मेरा जिया
सुबह सुहानी नहीं लगती
ना रात रूहानी है लगती
हर पल तेरी ही यादों में
तन्हा तन्हा बस गुज़रते हैं
ये सावन सुहाना आकर के
मुझे और तपाकर जाता है
मन के बादल घुमड़ करके
मेरे नयनों को छलका जाते
बासंती बहारें जब भी आती
और चमन को महका जाती
जीवन की उजाड़ बगिया को
पतझड़ सी बिखरा जाती है
बागों के रंगीन नज़ारे
आँखों को खटकते हैं
पत्ता पत्ता व जर्रा जर्रा
तेरी ही याद दिलाते हैं
जब घर अपना सजाती
हर कोने में तुझको पाती
तेरी चीज़ें सहला कर छूती
टीस सी मन में है उठती
तस्वीर तेरी जो मैं देखूं
आँखों से बहते हैं आँसू
तेरे मेरे बीच ओ प्रियतम
ज्यों कोहरा छा जाता है
तुझसे रोशन मेरी दुनिया
मेरे दिल का तू उजाला है
बिन तेरे सनम मेरी पूनम
अमावस ही बन जाती है
मीरा सी मैं दीवानी हूँ
नाम तेरा ही जपती रही
कृश्णा के संग जो रहती
वो राधा मैं ना बन पाई
ख़्वाबों के झरौखों में मेरे
पिया तू ही तू नज़र आता
गर मिट जाऊँ तेरे गम में
चूनर फूलों की ओढा देना
सरला मेहता