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रणछोड़ श्रीकृष्ण - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

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रणछोड़ श्रीकृष्ण

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रणछोड़ श्रीकृष्ण

मुरली मनोहर, कान्हा, कृष्ण मुरारी, नंद गोपाल, माखन चोर, देवकी नंदन जैसे कई नामों से पुकारे जाने वाले हैं श्री कृष्ण रणछोड़ क्यों
कहलाए ? भगवान श्री कृष्ण युग पुरुष लीला कला में दक्ष हैं।वे अपनी तर्जनी पर गोवर्धन पर्वत को उठा सकते हैं। कालिया नाग को वश में कर सकते हैं।ऐसे प्रभू लीलाधर श्री कृष्ण रणछोड़ तब कहलाए जब उन्होंने अपने शत्रु से मुकाबला ना करके मैदान छोड़ने में ही भलाई समझी।
हर प्रकार से सक्षम भगवान कृष्ण मैदान छोड़ कर क्यों भाग गए,।इसके पीछे निर्दोष जीवन को बचाना था।पुराणों के अनुसार मगध (आज भारत तथा बंगलादेश में बंटा हुआ) का राजा जरासंध, जो उस समय एकशक्तिशाली राजा हुआ करता था,ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद (मथुरा) पर चढ़ाई की ।युद्ध में जीत श्रीकृष्ण की हुई,लेकिन जरासंध ने हार नहीं मानी।
सत्रह बार युद्ध में उसकी हार हुई।
अठारहवीं बार में जरासंध ने युद्ध के समय 51000 ब्राह्मणों से यज्ञ करवाया ।
धर्मपरायण राजा श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों के मंत्र की गरिमा का सम्मान करते हुए इस बार जरासंध को न हराना ही उचित जाना। ।
इसलिये वे पूरी मथुरा की प्रजा समेत युध्द (रण) का मैदान छोड़ द्वारिका चले गए, इसलिए उनका नाम पड़ गया रणछोड़।
जरासंध कंस का ससुर था। श्रीकृष्ण द्वारा अपने जामाता का वध किए जाने से वह श्री कृष्ण का शत्रु बन बैठा था। उसने कृष्ण को युद्ध के लिए ललकारा तो कृष्ण जानते थे कि मथुरा में उसका मुकाबला करने से विशाल जनहानि होती,इसीलिए उन्होंने ना सिर्फ स्वयं बल्कि भाई बलराम और समस्त प्रजाजनों सहित मथुरा छोड़ देने का निर्णय किया।
दरअसल ‌जरासंध ने कृष्ण के साथ युद्ध करने के लिए अपने साथ काल यवन नाम के राजा को भी मना लिया था।काल यवन को भगवान शंकर ने वरदान मिला था कि ना तो चंद्रवंशी और न ही सूर्यवंशी उसका कुछ बिगाड़ पाएंगे। उसे ना तो कोई हथियार खरोंच सकता है और ना ही कोई उसे अपने बल से हरा सकता है।
कालयवन ऋषि शेशिरायण का पुत्र था। ऋषि शेशिरायण त्रिगत राज्य के कुलगुरु थे। एक बार वे किसी सिद्धि की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान कर रहे थे, जिसके लिए 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करना था। उन्हीं दिनों एक गोष्ठी में किसी ने उन्हें 'नपुंसक' कह दिया जो उन्हें चुभ गया। उन्होंने निश्चय किया कि उन्हें ऐसा पुत्र होगा जो अजेय हो, कोई योद्धा उसे जीत न सके। इसलिए वे शिव कीचड़ तपस्या में लग गए। भगवान शिव प्रसन्न हो प्रकट हुए और कहा,"हे मुनि! हम प्रसन्न हैं, जो मांगना है मांगो।" मुनि ने कहा,"मुझे ऐसा पुत्र दें जो अजेय हो, जिसे कोई हरा न सके। सारे शस्त्र निस्तेज हो जायें। कोई उसका सामना न कर सके।" "तुम्हारा पुत्र संसार में अजेय होगा। किसी भी अस्त्र-शस्त्र से उसकी हत्या नहीं होगी। सूर्यवंशी या चंद्रवंशी कोई योद्धा उसे परास्त नहीं कर पायेगा।

वरदान प्राप्ति के पश्चात् ऋषि शेशिरायण एक झरने के पास से जा रहे थे कि अप्सरा रम्भा पर मोहित हो गए। रम्भा से उनका पुत्र कालयवन हुआ।रम्भा समय समाप्ति पर स्वर्गलोक वापस चली गयी और अपना पुत्र ऋषि को सौंप गयी।
इधर यवन राज्य का उत्तराधिकारी वीर प्रतापी राजा काल जंग मलीच देश पर राज करता था।समस्त राजा उससे डरते थे।वह नि:संतान था। जिसके कारण परेशान रहता था। उसका मंत्री उसे आनंदगिरी पर्वत के बाबा के पास ले गया। उन्होंने उसे सुझाव दिया कि वह ऋषि शेशिरायण से उनका पुत्र मांग ले। ऋषि शेशिरायण पहले तो नहीं माने, पर जब उन्हें शिव के वरदान को स्मरण कर अपने पुत्र को काल जंग को दे दिया। इस प्रकार कालयवन यवन देश का राजा बना। उसके समान वीर कोई नहीं था।
एक बार उसने नारद से पूछा कि वह किससे युद्ध करे, जो उसके समान वीर हो। नारद ने उसे श्री कृष्ण का नाम बताया।कालयवन ने मथुरा पर आक्रमण के लिए सब तैयारियाँ कर लीं। दूसरी ओर जरासंध भी मिल गया।कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम सन्देश भेजा। श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि युद्ध केवल उनके और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ न लड़ाएँ। कालयवन ने स्वीकार कर लिया। यह सुनकर अक्रूर और बलराम चिंतित हो गए।तब श्रीकृष्ण ने उन्हें कालयवन को शिव द्वारा मिले वरदान के बारे मे बताया। उन्होंने बलराम को आश्वस्त किया कि वे उसे राजा मुचुकुन्द के द्वारा मृत्यु देंगे।

जब कालयवन श्रीकृष्ण को सामने पहुँचकर ललकारा तब श्रीकृष्ण वहाँ से भाग निकले।कालयवन भी उनके पीछे-पीछे भागने लगा। इस तरह भगवान रणभूमि से भागे। कालयवन के पूर्व जन्मों के पुण्य बहुत अधिक थे और कृष्ण किसी को भी तब तक दण्ड नहीं देते, जबकि पुण्य का बल शेष रहता है। कालयवन कृष्ण की पीठ देखते हुए भाग रहा था। इससे उसका अधर्म बढ़ने लगा, क्योंकि भगवान की पीठ पर अधर्म का वास होता है और उसके दर्शन करने से अधर्म बढ़ता है।जब कालयवन के पुण्य का प्रभाव समाप्त हो गया, कृष्ण एक कन्दरा में चले गए, जहाँ मुचुकुन्द निद्रासन में था। मुचुकुन्द को देवराज इन्द्र का वरदान था कि जो भी व्यक्ति उसे निद्रा से जगाएगा,मुचुकुन्द की दृष्टि पड़ते ही वह जलकर भस्म हो जाएगा। कालयवन ने मुचुकुन्द को कृष्ण समझकर लात मारकर उठाया और क्रोधित मुचुकुन्द की दृष्टि पढ़ते ही वहीं भस्म हो गया। कालयवन के जीवित रहते युधिष्ठिर चक्रवर्ती राजा नहीं बन सकते थे। इसलिए श्रीकृष्ण ने यह लीला रची।

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