कविताअतुकांत कविता
#बचपन के पल....
वह बापू के झूले....
जिनके आगे फिंके है सब झूले।
वह माँ का हाथों से खिलाना
कहाँ पाते हैं अब....
वो पहली बार साइकिल
सीखते हुए गिरना और
भाई का सँभाल लेना....
कहाँ पाते हैं प्यार!
उनका उम्र भर....
वह दीदी का माँ जैसे
प्यार देना....
वो भैया का सही- गलत
सिखाना.... बड़े प्यार से।
वह छुपन- छुपाई खेलना
दोस्तों के साथ....
ना लड़का- लड़की का
भेदभाव।
ना बुरी नजर से देखना
किसी का....
वह दोस्तों के साथ
पूरा गाँव घूम आना।
वह आम के पेड़ पर झूले
बाँधकर झूलना....
या फिर बरगद के जड़ों को
झूला बना लेना।
वो रेत पर छत से कूदना।
वह आनंद कहाँ मिलता है
दोबारा....बचपन होता है न्यारा।
वह बचपन की गलियाँ,
घर-आंगन और दोस्त!
कहाँ खो जाते हैं?
जवानी की दहलीज़ पर
कदम लेते ही....
हो जाती है पराई- सी,
अपना छोटा-सा शहर।
सारी दुनिया से होता है
किमती....
जो नहीं भूल सकते हैं हम!
वो अपनी पहचान....
जो खो जाते हैं कहीं
बड़े होते ही....
वह टूटी-फूटी चीजों में भी
खुशियाँ ढूँढ लेना।
उन्हें सहज के रखना।
कहाँ मिलती है वह खुशी!
जीवन में फिर....
वह अपनों का प्यार- दुलार
वह बिन कहे, उनका
समझ जाना....
हर बातें, हर ख्वाहिशें!
और पूरी कर देना
हर जिद्द....
नहीं भूल पाएँगे, हम!
वो बचपन के दिन....
नहीं भूल पाएँगे, हम!
वो बचपन के दिन....
नहीं भूला जाता।
वो बचपन के दिन
वो अपनों का प्यार....
@चंपा यादव
4/02/2021