कविताअतुकांत कविता
अब समर में कुछ भी शेष नही
सारे छल दंभ लग गये दाव पर
बाकी अब कुछ भी नहीं।
न तो किसी की इज्जत मन में
न ही किसी का प्यार रहा
माटी का लाल यहाँ पर
हर हाल बिकने को बेहाल रहा।
सभी राजनीति के पुजारी
जोर लगाते बारी बारी
आज चलती उसकी बारी
कल चलती उसकी बारी।
मुंह बाकर जनता देखे
समझ न आवे तैयारी
अपना अपना पहलू दिखावे
अजीब खेल है होनहारी।
दो वक्त की रोटी में
कैसे कोई मशगूल रहे
बोटी बोटी नोच रहे
आवे जिसकी अब बारी।
जनता बस देख के हारी
राजनीति की लीला न्यारी
पहले लुभावें बारी- बारी
बाद में लगे ज्यूं हत्यारी।