कविताअतुकांत कविता
प्रेम की परिभाषा ज्ञात नहीं है मुझे प्रिय
पर..मैंने तुमसे किया है निःस्वार्थ प्रेम
हाँ, सचमुच निःस्वार्थ प्रेम
प्रिय!
झूठे प्रेमियों की भाँति तुमसे
नहीं करूंगा वायदे हज़ार कदापि
प्रिय!
तुम मेरी साँसें हों
तुम बिन हूँ मैं अपूर्ण
मेरी साँसें चल रही हैं
इसकी मुख्य वजह तुम हो
तुम बिन इक पल भी
व्यतीत करना है मेरे लिए
लाख बरस के तुल्य।।
प्रिय!
इक वायदा ज़रूर करना चाहूंगा
मैं जीते जी तुम्हें कदापि
किसी भी तरह की कष्ट की
अनुभूति नहीं होने दूंगा
तुम्हारी ख़ुशी ख़ातिर
मैं लड़ जाऊंगा
हर मुश्किलों से।।
प्रिय!
स्मरण रखना इक बात सदा
मेरे निःस्वार्थ प्रेम को
मत समझना! कभी
झूठा, अन्यथा मुझे खोकर
तुम स्वयं का अस्तित्व
खो दोगी।।
©कुमार संदीप
मौलिक, स्वरचित