कवितालयबद्ध कविता
लमहा-लमहा, बूँद-बूँद,
जीवन-नदिया में ढूँढ-ढूँढ,
इसके इस तेज बहाव में,
जीवन-पथ के हर उतार
और हर चढा़व में,
करता रहा ना जाने क्यूँ,
खुद से ही अनजाने यूँ,
एक चमचमाते-झिलमिलाते से
अप्राप्त सुख की तलाश
खोती रही हर एक आज,
कभी ना आने वाले कल की
भरमाती सी, भटकाती सी
एक झूठी सी आस
बंद मुठ्ठी से सूखे रेत सा,
रहा फिसलता हर लमहा,
बनकर अनजाना मुझसे अब तक,
जीवन से यूँ रहा निकलता
होकर कुछ तनहा-तनहा
मैं सोता रहा,
और सिर्फ खोता रहा,
लिये बंद पलकों तले,
छलता हुआ सा एक सपना,
जो कभी नहीं हुआ अपना
कुछ तो हूई मुझसे गड़बड़,
हर आज में सिमटे बसंत को
लील गया तृष्णा का पतझड़
मृगतृष्णा का यह मरूस्थल,
जल में थल और थल में जल सा
भरमाता सा एक छल,
निगल गया ना जाने कितनी
आनंद की शीतल फुहार सी
बनकर आई हर पावस
हर एक पूनम आई
और आकर चली गयी,
बस ज्यादा, उससे ज्यादा
और फिर उससे भी ज्यादा,
इस चक्रव्यूह में फँसकर,
इसकी दलदल में धँसकर
हर एक रोशनी
पल-पल छली गयी,
आज आँखें खोली तो
सामने है सिर्फ अमावस
सिमट गया इस अँधियारे में,
हर लमहे से उगता सा
वो उजियारा
हाँ, बीत गया
और रीत गया
यूँ जीवन सारा
ढल गयी हर उजली धूप,
खो गया है इस
काले से साये में
उसका चहकाता,
महकाता सा,
स्वर्णिम रूप
मैं सिर्फ बटोरता ही रहा,
लालच के कंकड़-पत्थर अब तक,
संतोष के इस
बेशकीमती से नगीने को
बस छोड़ता ही रहा,
होकर यूँ बेखबर अब तक
कुदरत ने बख्शी थी मुझको
खुबसूरत जिंदगी,
काश बनाया होता इसको
मैंने एक बंदगी
इसकी हर बूँद पी लेता,
काश मैं भी जी लेता
सचमुच यह जिंदगी
अब तक यूँ मुझको कैद करते,
खुशियों में घुसपैठ करते
इस तंग दायरे से निकलकर
एक खुली-खुली सी जिंदगी
खुशियों की खुशबू से महकी,
बच्चे जैसी खिलखिलाती,
चिडि़यों सी चहकी-चहकी,
बोलती सी खामोशी की
मदहोशी सी बहकी-बहकी
हर लमहे में घुली-घुली सी जिंदगी
द्वारा : सुधीर अधीर