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यह तिरंगा कैनवास - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

यह तिरंगा कैनवास

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  • 11 Min Read

यह तिरंगा कैनवास,
भारत के जन गण मन की
चेतना का यह आकाश
वही जिसके बीचो बीच,
इस सफेद रंग में सिमटी थी
बूढे़ बापू की आत्मा,

मन को हरा-भरा सा करता
वह हरा रंग
जिसमें लिपटा था
किसान का पसीना,
मेहनत का नगीना,
माँ अन्नपूर्णा के
आँचल की हरीतिमा

और वो केसरिया
जो कभी सुभाष, भगत, आजाद,
बिस्मिल और अशफाक का
चहेता था,
हाँ, इनमें से हर एक
तिरंगे आँचल में लिपटी
भारत माँ का बेटा था

और वो चौबीस खानों वाला,
दुनिया में सबसे निराला,
प्रेम, शांति का रखवाला,
अद्भुत अशोक चक्र,
जिसमें "वसुधैव कुटुंबकम्",
"सत्यमेव जयते" बनकर
इस देश का चैतन्य बैठा था

ना जाने कब और कैसे
इन रंगों को बदरंग करता
एक काला सा साया
कुछ इस कदर छाया,
और करता चला गया
सबको एक दूजे से पराया

हाँ, नफरत का एक जुनून सा
कुछ इस तरह मन पर छाया
और बँटता ही चला गया
इसकी गहराई में बसा
वो बेशकीमती सरमाया,

वो सत्य, प्रेम और शांति,
जाने कहाँ पर खो गयी
इसकी वो उज्ज्वल कांति,
निगल गयी इन सबको एक
भटकाती सी भ्रांति

और यही क्या कुछ कम था,
क्या काफी नहीं ये गम था
कि वुहान से उठता हुआ धुआँ
तन-मन-धन पर छा गया
कुछ को घरों में कैद
और कुछ को बेघर बना गया

सब अपने-अपने ही ढंग से
एक दूजे से अलग-थलग से
होकर सोचने लगे
खुद को सुधारना छोड़
एक दूजे को कोसने लगे

एक दूजे की हर कोशिश
हमको साजिश लगने लगी
चुँधियाई सी आँखों से नजर अंदाज,
बहरे कानों में अनसुनी होती आवाज,
और इसके साथ-साथ ही
होकर कुछ अनाथ सी,
वजू़द को बचाने की
हर ख्वाहिश मरने लगी
जिंदगी खुद का ही चेहरा
देखकर डरने लगी

सब लोग यूँ अपने-अपने
आप में सिमट गये
अपने-अपने ही स्वार्थों से
इस तरह लिपट गये

और फिर इस काले साये के
बिल्कुल पीछे-पीछे
इंसानियत से इस कदर
गिरकर नीचे
सरहद पर लाल-लाल रंग बखेरता
दबे हुए कुछ जख्मों को
फिर से यूँ कुरेदता,

भुलाकर अभिनय जैसी वो गर्मजोशी
अपना यह चीनी लाल पडौ़सी
चढ़कर आ गया
बहशियत का एक मनहूस सा साया
बनकर जनमन पर छा गया

ना जाने अब और क्या-क्या
किस्मत को मंजूर है
लग रहा हर कोई अब
अपने ही मद में चूर है
इंसानियत से आज इंसाँ
इस कदर क्यूँ चूर है
इंसानियत इन सबके हाथों
इतनी क्यूँ मजबूर है

वो छोटी सी खाई इतनी
बडी़ कैसे हो गयी
बनना चाहते थे हम तो इस
आँगन की महकती मिट्टी
बना-बना हमको यूँ मोहरा
बीच में दीवार ये
खडी़ कैसे हो गयी

जाने कैसे संवेदना का
यूँ वनवास हो गया,
मानव के चैतन्य का
चिंतन के धरातल से
अज्ञातवास हो गया

कल का वो महका सा गुलशन
है आज एक उजडा़ चमन,
देखते ही देखते
इस कदर डरावना सा
अपना यह तिरंगा कैनवास हो गया

द्वारा: सुधीर अधीर

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