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श्रीनगर की कानी शॉल - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकप्रेरणादायक

श्रीनगर की कानी शॉल

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श्रीनगर की कानी शाल
"स्वागत है बच्चो, भारत चर्चा में आज हम श्रीनगर से करीब 16 किलोमीटर दूर बड़गांव जिले के गांव कनिहामा के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।"
"चाचाजी,धरती के इस स्वर्ग का तो हर स्थान निराला होगा! हम उत्सुक हैं आज आप क्या बताने वाले हैं?"अर्पण ने जिज्ञासा रखी।
"बच्चो,यूं तो यहां की हर चीज़ काबिले तारीफ़ है,किंतु जिस चीज़ की हम चर्चा करेंगे वह है इस गांव के कारीगरों का हुनर और अनूठी हस्त कला।"
"क्या आप पशमीना के बारे मैं बताने जा रहे हैं?"वरुण बीच में बोल उठा।
"नहीं, मैं कानी शॉल की बात करने जा रहा हूं।कश्मीरी कालीन और पशमीना की चकाचौंध के आगे कानी शाल गुमनामी में कहीं खो गई थी।पर धन्य हैं यहां के कारीगर ! न इनका विश्वास डगमगाया और न इन्होंने अपने हुनर से किनारा किया 80 और अब तो धारा 370 के खात्मे के बाद इस गांव में भी उम्मीद की रोशनी जगी है कि इन्हें भी विकास के साथ कदमताल करने का भरपूर अवसर मिलेगा।"
"ये नाम तो पहले सुना नहीं,कानी शॉल
के बारे में काफी कम लोग जानते होंगे।"मृणाल ने कहा।
" सही है,इसकी गुणवत्ता पशमीना शॉल से भी कई गुना अधिक है। एक कानी शॉल की कीमत 30,000 से ₹4लाख तक है।चिरू भेड़ की ऊन से बनी बारीक कढाई और डिजाइन वाली इस शॉल को बनने में एक से डेढ़ साल लग जाता है।यह शॉल वज़न में हल्की होती है जबकि इसकी गर्माहट काफी अधिक होती है।"
"क्या यहां के लोगों की आजीविका का साधन यही है?"मुकुंद ने जानना चाहा।
"बुनकरों का गांव कहे जाने वाले कनिहामा की बड़ी आबादी इसी पर निर्भर है।गांव में महिलाओं की संख्या अधिक है। कनिहामा की पहचान भी कानी शॉल से ही है। इसका असली नाम गुंड कारहामा था लेकिन कानी शॉल की बदौलत इसका नाम कानीहामा पड़ गया।"
"इसे बनाने कि प्रक्रिया भी बहुत जटिल होगी?"नीलेश ने पूछा।
"यह शॉल कानी यानी विशेष प्रकार के पेड़ की पतली टहनियों पर बुनी जाती है।कानी को पहले पेंसिल की शक्ल दी जाती है। इसके लिए अलग से कारीगर होते हैं।बाद में कानी हथकरघे पर चढ़ाए पशमीने के धागों में घुसाई जाती है और शॉल बनने की प्रक्रिया शुरू की जाती है। एक कानी शॉल को बुनने के लिए 25-30
कनियों की दरकार होती है। एक कारीगर प्रतिदिन औसतन 1 से 2 इंच ही बुन पाता है।"
"सचमुच बहुत मेहनत का काम है।",आदर्श ने माना।
"डिजाइन व शॉल के साइज के हिसाब से इसका रेट तय होता है।भारी कीमत के चलते यह गरीबों की पहुंच से बाहर है।
कानी शॉल से बिल्कुल मिलते-जुलते नकली शॉल मार्केट में मिल जाते हैं।"
"तब तो ग्राहक ठगे जाएंगे,इतना दाम भी देंगे और असली सामान भी नहीं मिलेगा।"गौरव ने चिंता जताई।
"तुम्हारी चिंता जायज़ है।खरीदारों के लिए पहचानना मुश्किल हो जाता है कि कौन सी शॉल असली है और कौन सी नकली। नकली शाल 4000 से ₹6000 तक बेची जाती है। सरकार ने यह दिक्कत दूर करने के लिए कानी शॉल को ज्योग्राफिकल आइडेंटिफिकेशन का दर्ज़ा दे दिया है। इस ट्रेडमार्क से असली की पहचान करना आसान हो गया है।"
"वाह,यह ठीक है।"सबने कहा।
"अब कानी हथकरघा गांव के तौर पर विकसित होगा। कारीगर शब्बीर अहमद डार को बेहतरीन कानी शॉल डिजाइन करने का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।कुछ क़रीब कारीगर 70 वर्षों से इस काम से जुड़े हैं और उनकी कानी शॉल प्रसिद्ध संग्रहों की शान बने हुए हैं।"
"चाचाजी,इस कला के प्रसार के लिए प्रशिक्षण केन्द्र बनने चाहिए।"मुकुल ने सुझाव दिया।
"बहुत अच्छे, बच्चो इन कारीगरों के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं जिसमें उन्हें हथकरघे,सोलर लाइट व अन्य मौलिक सुविधाओं के साथ - साथ गांव में कारखाने और शो - रूम स्थापित करने की योजना है।"
"वह दिन दूर नहीं जब हम फिर से कश्मीर को धरती का स्वर्ग पाएंगे।"सबने समवेत स्वर में कहा।

गीता परिहार
अयोध्या (फैजाबाद)

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दादी की परी
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