कहानीलघुकथा
सूरज की फीकी गर्मी
हड़कंपउना जाड़ा है।पछियाँव बह रही है। कोयला जो सुलगाया था,बुझ चुका है।बस इतना ही मिन्नतें करके बुधनी भौजी से एक लोटा दूध के बदले लाई थी।टाट के पर्दे में इतने छेद हो चुके हैं कि हवा रुकती नहीं। फटी कथरी(गुदड़ी) को खींच तान कर किसी तरह गरमाने की असफल कोशिश की।नन्हकू ने उठकर खिड़की को बोरे से ढंक कर हवा को रोकने की लाख कोशिश की,थक हार कर हरिया भी कथरी फेंक चूल्हा जलाने लगी। चूल्हे का धुंआ झोंपड़ी में भर गया।आग पकड़े तो कुछ गर्मी मिले।बाहर गाय रंभा रही है।उसे भी बोरे की जरूरत है।अभी पिछले हफ्ते ही साहूकार से पांच रुपए देकर दो बोरे लाई थी,न जाने सुनहरी ने कहां गिरा दिए! दरिद्र का घर अंधा कुंआ सरीखा होता है,भरता ही नहीं।नन्हकू से कहा था, इस बार कम से कम दो कम्बल के बगैर गुजारा नहीं होगा।मगर कमरतोड़ मेहनत के बाद भी जुगाड नहीं हो पा रहा। सुनहरी के सर पर छाजन भी नहीं है। थोड़ा पुआल था जिसे अपनी कथरियों के नीचे बिछा दिया था।घर में मोटा अनाज भी चुक गया है। बनिया उधारी देने से मना कर चुका है, कहता है पहले पुराना कर्ज़ा उतारो। पिछली बार धमका रहा था कि टिल्लू खोल ले जाएगा।हरिया को अपने लिए कुछ नहीं चाहिए।न रेशमी साड़ी,न टिकुली,न बिछिया,बस किसी तरह नन्हकू के एक गर्म सदरी हो जाती।रात को बिजली आने पर जब ट्यूबवेल चलाने जाता है ,तो कैसा दांत किटकिटाता है। लौट कर हाड़- मांस कांपता रहता है।ससुरा सूरज भी तेज नहीं निकल रहा।यह भी क्या हमारी तरह थक चुका है?शीतबयार में हाल- बेहाल है।
यह तो अच्छा है कि अभी बाल -बच्चा नहीं है, नहीं तो क्या खुद खाते, क्या उनको खिलाते !मगर ऐसे कैसे चलेगा, गौना हुए डेढ़ साल बीत गया।गली की पुरखीन ऊंचा बोल रही थी,"का रे हरिया, कब ले ऐसे रहोगी? क्या नन्हकू को निरबंसिया बनाओगी ?"
ये शहराती अमीर कैसे हर मौसम का मजा ले लेते हैं? आएं इस फूस की झोपड़ी में एक रात बिताएं, फिर पूछें इनसे "सूरज का चांद बन जाना" कैसा लगता है ?
गीता परिहार
अयोध्या