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भूख
आज समाज में अधिकांश लोग तनाव का जीवन जीने पर मजबूर हैं। यह मजबूरी उनकी अपनी ही ओढ़ी हुई है। जिसका नाम है ख्वाहिश चाहत,इच्छा ,भूख। इंसान हर तरह से अपनी ख्वाइश पूरी करना चाहता है। एक ख्वाहिश पूरी होती है कि दूसरी की चाहत हो जाती है और इन ख्वाइशों का सिलसिला बढ़ता ही जाता है।
भूख पेट की अथवा शारीरिक ही नहीं होती। एक संवेदनशील भावुक इंसान को समाज, भाईचारे और प्रेम की भूख होती है।समाज में स्वीकारें जाने की भी भूख होती है। पद -प्रतिष्ठा ,लालसा की भूख होती है। अपनी अलग पहचान बनाने की भूख होती है।महत्वाकांक्षाओं की भूख होती है।
इंसान जैसा होता है वैसी ही उसकी ख्वाहिश होती है।एक साधु वैराग्य चाहता है। एक संत सत्संग चाहता है। एक गृहस्थ परिवार में सुख- शांति चाहता है।एक सैनिक अज्ञान चाहता है।अपराधी प्रवृत्ति का व्यक्ति अशांति और भय का माहौल चाहता है।एक रोगी व्यक्ति स्वास्थ्य चाहता है तो वहीं चिकित्सक रोगी चाहता है। भाई -भाई मेल मिलाप से रहना चाहते हैं तो फिर वकील और अदालतें तो मुवकिल
चाहती हैं। नेता को कुर्सी की भूख है;बाज़ार को खरीदार की। मृत्यु शैय्या पर पड़ा व्यक्ति मौत मांगता है और मौत को सामने पाकर जिंदगी की भीख मांगता है।
इसी तरह सारी दुनिया दिन रात अपनी चाहतों को पूरा करने की चाहत रखती है |ऐसे में किसी एक व्यक्ति की चाहत जब सीमाएं लांघ जाती हैं तो समाज को नुकसान पहुंचाती हैं।
भूख पर संयम हो, फिर वह भूख किसी भी प्रकार की हो समाज को हानि नहीं पहुंचाती क्योंकि महत्वाकांक्षा की भूख नहीं होगी तो समाज में विकास नहीं होगा।मनुष्य स्वयं भी विकसित नहीं हो पाएगा ।हम आज भी आदिमानव ही होते।यदि हमें प्रगति और सुधारों की भूख ना होती,कोई वैज्ञानिक आविष्कार न होते सभ्यताएं ना पनपतीं। इसलिए सकारात्मक दृष्टिकोण को लेकर होने वाली भूख जो हमारा और हमारे समाज का भला करें वह एक निश्चित मात्रा में होनी चाहिए, न ज्यादा,न कम।
इसीलिए कहा गया है ,"अति सर्वत्र वर्जयते।"
अति का भला न बोलना,अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
गीता परिहार
अयोध्या