कविताअतुकांत कविता
स्वयं छाया,स्वयं आधार हूँ मैं,,,
सृष्टि का शिलान्यास हूँ मैं
सन्मार्ग हूँ पूर्ण सृजन का
इकमात्र धुरी परिवार की
जीवन-चक्र चलाने वाली
ठोकरें खाती रही मैं सतत
शालिग्राम स्वरूप मैं बनी
हार बनी मैं हर ग्रीवा का
मुझे हार है पग पग मिली
किश्त किश्त में मिला है
हक़दार थी इक मुश्त की
दहलीज़ की हदों में रही
दर दर की भटकन मिली
ग़र तुम प्रथम मनु थे बने
आदि श्रद्धा मैं भी तो थी
परछाइयाँ बिखरी हैं मेरी
कतार शुरू होती मुझीसे
बुन रहे फ़क़त ताने बाने
स्वप्नदृष्टा तो बस मैं ही हूँ
कृतियाँ संसारी अद्भुत हैं
पर कलाकार मैं ही तो हूँ
हाँ आगाज़ तुमने किया
पर साकार मैंने ही किए
स्वयं छाया,स्वयं आधार हूँ मैं,,,,,,,,
सरला मेहता