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माँ आओ - राजेश्वरी जोशी (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

माँ आओ

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माँ आओ
द्रौपदी आज फिर, दु:शासनों से घिरी खड़ी है,
भरी सभा में आज फिर ,जार- जार रो रही है।
मेरी क्या है गलती, वो गांधारी से पूछ रही है,
हाथ जोड़कर गांधारी से , निवेदन कर रही है।

माँ तुम जरा कौरवों की , सभा में आज आओ,
अपनी पट्टी आज अपनी ,आँखों से जरा हटाओं।
धृतराष्ट्र को उसका , कर्त्तव्यपथ तोआज बताओ,
दुर्योधन, दु:शासन को ,सुपथ तो जरा दिखलाओ।

भीष्म से बोलो आज तो ,जरा वो मुँह को खोले,
भरी सभा में जरा तो सत्य ,के लिए आज बोले।
सखा कृष्ण शायद ,कलियुग में आज सो गये हैं,
या मार्ग में भटककर कही , वे शायद खो गये है।

माँ अब सिर्फ तुम्हारा ही है, दुनिया को सहारा,
तुमको ही है इस समाज, को सदमार्ग दिखाना।
माँओ को ही अब तो इस ,समाज को है जगाना,
माँओ को ही अबलाओं को ,राक्षसों से है बचाना।

आओ माँ अब देर ना करो, अब तो तुम आ जाओ ,
आकर इस दुनिया से,अत्याचार को मिटा जाओ।
आँखों से अपनी जरा आज ,तो पट्टी को हटाओ,
दु :शासन, दुर्योधन को जरा सुपथ तो दिखाओ।

आओ माँ अब देर ना करो ,अब तो तुम आ जाओ,
अपनी बेटियों की लाज आकर ,तुम आज बचाओ।
इस दुनिया के लोगोँ को, आकर माँ सुपथ दिखाओ,
इस दुनिया के जुल्मों से, अपनी बेटियों को बचाओ।

नारी शक्ति को माँ आकर ,आज फिर तुम जगाओ,
दुर्योधनों, दु:शासनों को आकर ,सबक सिखाओ।
माँ आज तुम फिर से रणचंडी, का रूप धर आओ,
दानवों का संहार करने माँ , फिर इस धरा पर आओ।
स्वरचित् रचना है।
राजेश्वरी जोशी,
उतराखंड

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