कहानीलघुकथा
" बावरा बंदा "
ये मस्त मौला बावरा बंदा नितांत अकेला, एक छोटे से घर में रहता है। लेकिन उस घर में भी कई घर हैं।
पंछियों के, निरीह पशुओं के और निराश्रित आत्माओं के,,,।
उसका स्वयं का कोई ठिकाना नहीं। उसकी सुबह अपने पालित सदस्यों की सेवा में गुज़रती है। राह के सूखे पौधे सींचना, घायल भूखों की सुश्रुषा करना और फिर अपनी नौकरी करना। उसकी शामें अनाथालय व वृद्धाश्रम में बीतती हैं।
वह अपने परिवार को एक हादसे में खो चुका था। तभी से उसने औरों के लिए जीना शुरू कर दिया। लोग उसे बावरा, पगला कहते हैं। "पर उससे समझदार शायद ही कोई हो।" ऐसा भी लोग कहते हैं।
सरला मेहता