कहानीसामाजिक
चारपाई पर लेटे हुए दादा जी ने आज फिर से एक दफ़ा अपने बेटे को आवाज़ लगाते हुए चिल्लाने लगे।
रोज कि तरह आज भी संजीव दादा जी कि आवाज़ को नजरअंदाज कर,ऑफिस के लिए निकल गया।
ऐसा नहीं था कि संजीव को दादा जी की फ़िक्र नहीं थी लेकिन काम को लेकर थोड़ा ज्यादा ही व्यस्तता रह जाती थी जिससे वह ध्यान नहीं दे पाता था।
आज पूरे तीन साल बीतने को थे,
और हर साल ने अनगिनत यादें और उम्मीदों से आस जोड़ ली थी दादा जी ने,यादों कि पोटली में कुछ पुरानी यादों ने अपना अड्डा भी बना लिया था,यादों की पोटली खोलने की आस हर साल के बीत जाने के बाद और बढ़ जाती, जब संजीव कहता कि इस बार नहीं अगले साल जरूर चलेंगे।
लेकिन इंतज़ार ने बग़ावत कि जंग छेड़ दी...पूरे दस दिन के भीषण युद्ध के बाद आख़िरकार इस जंग का अंत हो ही गया लेकिन दादा जी हार चुके थे।
उनके याद शहर पर समय ने अपना अधिपत्य जमा लिया था।
साल ख़त्म होने के साथ साथ करता है ख़त्म,
आपकी आस को,
आपकी उम्र को,
आपके रिश्ते को,
और न जाने कितनी यादें कैद हो जाती है एक बन्द लिफ़ाफ़े में, और न जाने कितनी चीज़े निगल जाता है ये एक साल.…
और बदले में दे जाता है झूठी तसल्लियाँ...झूठे इरादे,नाकामयाबी की एक और सीढ़ी....और फिर अंत में फिर वही........हर साल कि तरह...
✍️ गौरव शुक्ला'अतुल'