कवितागजल
कोरोना का दर्द
दिन पर दिन, रात पर रात भारी है
इस वर्ष का हर पल लोगों पर भारी है।
सैकड़ों वर्षों की मेहनत जैसे मिट्टी हो गई
व्यक्ति पर सृष्टि की शक्ति आज भी भारी है।
डूबती आशा थी और स्वप्न कई टूट गई
आंखें जो पथरा गर्इं आंसुओं पर भारी हैं।
कह न पाऊंगा यहां दर्द जो देखा वहां
राहतों की भीड़ पर चीखें-कराहें भारी हैं।
अक्षर, शब्द, वाक्य भी खोजने से मिलते नहीं
व्याकरण पर दर्द की संवेदनाएं भारी हैं।
अजय बाबू मौर्य ‘आवारा