कवितालयबद्ध कविता

अभिलाषा
मैं थी इठलाती,बलखाती चंचल धारा
निर्मल, निष्कलंक बहता था जल सारा
अविरल,अनवरत, अविराम बांटा स्नेह
सिंचित किया भू को , दिया जन-जन को नेह
कलुषित की मेरी धारा
मैल उंड़ेला अपना सारा
कूड़ा,गाद, अपशिष्ट कहर बन टूटा
त्रास मेरा बाढ़ विभिषिका बन फूटा
प्रदूषणमुक्त कर मुझे अपना अस्तित्व बचाओ
अहित करो न खुद का प्रवाह निर्बाध बनाओ
न खिलवाड़ करो पर्यावरण संरक्षित करो
परिवृतित हो रही नालों में, पुनर्जीवित मुझे करो
मानो गंभीर चुनौती,जल्यजनों का दम घुट रहा
अस्वच्छ ,संकट में जलाशय,नदी, नदियां,सागर
मूर्तियां विसर्जन,फूल, वस्त्र,तेल बहाकर
घटाया बायोलॉजिकल ऑक्सीजन अपार
नहान,आचमन,पूजन-अर्चन होगा सब व्यर्थ
नहीं समझे जब जलधाराओं का मौन दर्द
मिला हमसे ही संस्कृतियों -सभ्यताओं का प्रसार
हम ही जीवन के आधार हमें करते निराधार
जागो,सरकारों का मुंह न ताको,कहती मैं बेज़ार
अभिलाषा मेरी यही सचेत हो जाओ इस बार
गीता परिहार
अयोध्या