कहानीसामाजिकअन्यलघुकथा
मुखौटा
आज पैरेंट्स टीचर मीट में संजना को सुनाई दिया,
"ये मुस्कुराती भी हैं, मुझे तो बहुत खडूस लगती हैं,अजीब ही हैं ?"
"नहीं,इन्होंने मुझसे हंस-हंस कर बहुत देर तक खूब बातें कीं,वे बिल्कुल खडूस नहीं हैं।असल मैं वे रिजर्व रहती हैं,कैसी हैं,पता लगाना आसान नहीं है।"
"कछुए की तरह खोल में?"
"प्याज की पर्तें उतारते जाएं,तब पता चलेगा,कैसी हैं।"
"बच्चे बहुत डरते हैं इनसे।"
उनकी ये बातें उसके कानों में पड़ीं,गहरे तक कुछ चुभ गया सब कुछ, क्या करे,मुखौटे उसे विरासत में मिले थे।बचपन में मां-बाप रोज़ाना झगड़ते।कभी मुहल्ले वाले,कभी पुलिस आ जाती।पुलिस को देख वह डर जाती।अबोधपने, बेबसी और करूणा का मुखौटा लगा लेती।स्कूल में आत्मविश्वास का,शादी के बाद चंद दिन मुखौटों की जरूरत नहीं पड़ी। फिर महसूस हुआ कुछ खास नहीं बदला था। बेरोजगार पति,हर वक्त हुक्म चलाता।हाथ उठाता। दुनिया के सामने निहायत शरीफाना अंदाज में पेश आता।रात में भी मुखौटा पहनना पड़ता!दिन भर की मिली उपेक्षा छिपाता मुखौटा।
अक्सर पीकर आता।मुखौटा पहनना मुश्किल होता।मुखौटे पर भी सलवटें आ जातीं।सुबह होती,नया मुखौटा! मैंने उसका चेहरा देखा है, बिना मुखौटे का।
गीता परिहार
अयोध्या