कविताअतुकांत कविता
हर्षित....
पता नहीं कितनी आकांक्षाएं
कितने स्वप्न अपने में ही
सिमट कर रह गए
पता नहीं क्या है
जो कांटे सा चुभता है
सोने नहीं देता रात भर
एकांत बन जाता है
जिंदगी का सिलसिला
विवशता बनती है
जिंदगी की परिभाषा
पता नहीं कैसे जी लेता हूं
जबकि तुम हो केवल यादों में
पता नहीं क्यों
जिंदगी हर्षित है रेगिस्तानों में.....
अजय बाबू मौर्य ‘आवारा’