कवितानज़्म
एक आग सुलगने भर
मेरी जिंदगी रही
बाकी बुझ गई।
मेहराब ए अज़ाब से
यह क्या देखा,
कब बारिश हुई
कब थम गई।
मैं भीगना चाहता था
उन मेले बदन में,
बादलों से नफरत हुई
जितने भी हुई
बाकी बरस गई।
कांटो भरी रात
वह चुभन से याद
आंगन में ठहरी
चांदनी भी हया हुई।
रात भर गुफ्तगू
महज़ यादों के संग
चाहें जितनी भी करूं
कुछ याद ना सहमी
बाकी झिझक गई।
कलाई का धागा
जो बार बार टूटता
जैसे ख़्यालों के ख़्वाब कई।
बूंद बूंद भरती
वह आरज़ू मेरी
यह क्या हुआ?
की प्यासी प्यासी फिरी
बाकी सहरा गई।
मजबूरन एक दफा
हयात को देखना पड़ा
कुछ मुझ में बची
थोड़ी सवालों में ठहरी
बाकी गुज़र गई।
एक आग सुलगने भर
मेरी ज़िंदगी रही
बाकी बुझ गई।