कवितालयबद्ध कविता
स्वप्न होते रहते हैं ऐसे दफन
अभिलाषा ओढ़ लेती है जैसे कफन
किंतु मेरे अंतर्मन में बैठा कोई
देता रहता है जाने कैसे, कहाँ से
एक मनभावन सा अपनापन
सूक्ष्म में सिमटा हुआ विराट बनकर
तमस को ललकारता प्रभात बनकर
अद्भुत परमानंद का अहसास बनकर
धरती का वात्सल्य समेटे
चैतन्य का आकाश बनकर
ये बाहर की दुनिया
पेश करती रहती है
पल-पल झूठ, छल-कपट का
एक भारी भरकम पुलिंदा
नफरत के इन दोनों में भर-भरकर
बटोरकर जमाने भर की सब निंदा
जीवनसागर के हर मंथन का
प्रथम चरण है विषसृष्टि
मगर एक अद्भुत, अलौकिक अंतर्दृष्टि,
एक वैराग्य, वीतराग बन नीलकंठ
चुपके-चुपके सब कुछ पीता रहता है
एक चिरजिजीविषा को प्राणों में
भरकर जीता रहता है
सुख-दुःख को समभाव से
निरपेक्ष, निष्काम भाव से
चिंतन के अनंत, अद्भुत धागे से
मन की हर उधड़न को सीता रहता है
हर कीचड़ में कमल बनकर
काँटों की शरशय्या पर सुमन बनकर
कभी मीरा बनकर
कभी जीसस बनकर
और कभी बनकर गाँधी
रोकता है उन्मादों की हर आँधी
आता है हर घुटन में पुरवाई बनकर
लाता है हर उमस में
सावन की शीतल बूँदाबाँदी
बनकर अगस्त्य पी लेता है
विषमता का अपार सिंधु
हाँ, ऐसी ही कुछ दिव्य
दुर्लभ स्वातिबिंदु
जीवन-सीपी में ढल-ढलकर
एक अद्भुत मोती बनती है
झंझावातों को झेलती सी
उम्र के हर लमहे को ठेलती सी
एक अद्भुत इच्छाशक्ति से साँसों को
प्राणों में उड़ेलती सी
टिमटिमाती है मगर
यह जीवनज्योति जलती है
सच पूछो तो जिंदगी
ऐसे ही चलती है
हाँ, सृष्टि के अस्तित्व का
आधार यही है
और ब्रहम के एक से
अनेक होने की इच्छा को
मूर्तरूप देता हुआ
जड़-चेतन संसार यही है
हाँ, विधाता की सृष्टि का
विस्तार यही है
हाँ, निराकार चैतन्यपुरुष और
जगदंबा प्रकृति के
संयोग से उपजा हुआ
विश्वरूप साकार यही है
द्वारा : सुधीर शर्मा