कहानीलघुकथा
"माँ की निशानी"
बाँध के कारण अपने बसेरे का मटियामेट देख हर ग्रामीण व्याकुल है। पर झलक क्या करे। उसकी माँ के हाथ का लगाया अमरूद का पौधा कैसे ले जाए। बीमार बापू के बस की बात नहीं। सब जा चुके हैं अपना डेरा डांडा लेकर। मौके पर काम करवा रहा ठेकेदार अलग दुत्कार रहा है।
झलक ने पौधे को जड़ माटी सहित उखाड़ लिया। बापू की पीठ पर सामान का बोरा। अकेली बच्ची के बस की बात नहीं कि पौधे को ढो सके। वह सबसे विनती कर रही थी , "ओ दादा, ये हमारे नए डेरे तक पहुँचा दो ना ।"
कोई उसकी बात सुनने को तैयार नहीं। तभी इंजीनियर साहब जीप से आए। साथ में उनकी बेटी भी यूँ ही घूमने आ गई। वो बोले , " अरे हटाओ ये सब अटाला। नेता जी भी मुआयना करने आ रहे हैं। ए छोरी , चल उठा अपना पौधा और भाग यहाँ से। "
झलक बोली," साब, ये भारी है, कैसे,,,।" बीच में टोक दिया बेचारी को, "इतनी बड़ी तो है,किस काम की। अरे वहाँ दूसरा लगा लेना।" बेचारी डरते सहमते बोली," ये मेरी माँ की निशानी है। बड़े साब, क्या आपकी बेटी ये उठा सकती है।"
साब ने धीरे से टालते हुए जवाब दिया, " अच्छा ठीक है,बैठ जाओ जीप में। अरे कोई है, इसका ये सामान भी रख दो।"
सरला मेहता