कविताअतुकांत कविता
जाड़े की नर्म धूप का आनंद, मुझ पहाड़ी से पूछिये,
ठिठुर जाते हैं हाथ-पैर, गर्म कपड़ों का सहारा होता है।
सामने पहाड़ी से सूरज के निकलने का इंतजार करते
मानव, फूल-पौधे, पंछी, तितली, भंवरे, चराचर सारे।
पेड़ों के पीछे दूर कहीं लुका छुपी का खेल करता सूरज
धीरे-धीरे पहाड़ी से निकलकर बिखरा देता है अपनी किरणें शीत जग की मिटाने।
बर्फ से लकदक पहाड़ जगमगाते हैं
धरती रुपहली चुनर ओढ़ सज जाती है,
अधखिली कलियां भी मुस्कुरा उठती हैं
सकल जगत में ऊष्मा का संचार होने लगता है।
इस गुनगुनी धूप में बैठकर सुबह
चाय की चुस्कियों का आनंद मत पूछिए।
दादा-दादी का आंखें मूंदकर बैठना
गजक और मूंगफली की बहार
महिलाओं का धूप में बैठकर गपशप करना
ऊन के नर्म गोले और सिलाइयां निकाल लेना।
बच्चों की चहल-पहल जीवन को रसमय बना देती है
मेरे पहाड़ की जाड़े की गुनगुनी धूप में...।
अमृता पांडे
हल्द्वानी नैनीताल
देवभूमि उत्तराखंड