कहानीसंस्मरण
*इन पुराने कागज़ों का क्या करूँ?*
बहुत दिनों से सोंच रहा था कि अपने कागज़, पत्तर का भंडार कुछ कम करूँ। बस इसी काम को अंजाम देने के लिये पुराने कागज़ों का बक्सा खोल लिया।सबसे पहले उन पत्रिकाओं का बंडल हाथ आया जिसमें मेरी रचनायें छपी थी।जाहिर था उनको रखने या हटाने का फ़ैसला करने से पहले उसपर सरसरी निगाह डालना जरूरी था।इसमें कोई भी पत्रिका बेकार नहीं लगी।
तमाम और कागज़ों को देखने के बाद पुराने पत्रों का लिफाफा हाथ आ गया।इसमें पोस्ट कार्ड, इनलैंड,लिफ़ाफ़े, और ग्रीटिंग भरे थे।
पहला पोस्ट कार्ड उठाया ये मेरी नानी जी का था तारीख पड़ी थी 5 जून 1967,उसमें बीच में लिखा था "ये आम का मुरब्बा गिरजा बेबे के हाथ भेज रही हूँ, मेरे गोपाल को बहुत अच्छा लगता है।किसी तरह इस बार बना दिया है,पता नहीं अब अगले साल बना पाऊंगी या नहीं।"
चार बार इस लाइन को पढ़ा।नानी के हाथ के बने मुरब्बे का स्वाद याद आ गया।वाकई फिर उसके बाद नानी जी न मुरब्बा बना पायीं और न भेज पायीं।
अगला पत्र खोला ,वह मेरी बुआ का था।जिसमें लिखा था "मैं आप सबसे बहुत दूर हूँ इसलिए आ तो नहीं सकती पर भाईदूज का रोली चावल भेज रही हूँ।मुनियाँ बहन से टीका लगवा लेना।" (उस समय मेरी बुआ अपने छोटे बेटे के पास इराक में थीं।मेरे भाई जो भारतीय एयर फोर्स में ग्रुप कैप्टन थे, इराकी एयरफोर्स को ट्रेनिंग देने गये हुये थे।) ,,,,,पत्र को माथे से लगा कर रख दिया।
अब एक ग्रीटिंग उठाया जो मेरी बेटी ने मुझे मेरी मैरिज एनिवर्सरी पर दिया था। जिसमें बड़े प्यार से कई रंगों में लिखा था " प्यारे मम्मी, पापा, आपके लीये कोई गिप्ट तो नहीं खरीद सकी हूँ,बस केवल ग्रीटिंग ही दे रही हूँ।"उस समय वह शायद छटी क्लास में हैडर्ड में पढ़ती थी। उसने अपने कई दिनों के जेब खर्च से आर्चीज का ये ग्रीटिंग खरीदा होगा।
बेटी के नाम को होठो से लगा कर इसे भी रख दिया।
अगला ग्रीटिंग था मेरी बड़ी साली का उसमें एक प्यारा सा बच्चा बना हुआ था।उसका वह आख़िरी ग्रीटिंग था क्योंकि कुछ ही दिनों बाद वह अपने पहले बेटे को जो शादी के आठ साल बाद हुआ था, उसको जन्म देने के बाद वह नहीं रही थी।,,,,,,,,,,
कुछ देर ये ग्रीटिंग हाथ मे लिये, उसको याद करता रहा, फिर रख दिया।
अब अगला पत्र जो खोला ये मेरे मित्र विजय तलवार का दिल्ली से था।उसने ये पत्र अपने बन्दरपूंछ शिखर अभियान के पहले लिखा थाजिसमें मुझे बेस कैम्प तक साथ चलने को कहा था।
पर दुर्भाग्य से इस अभियान के लिये दिल्ली से बस द्वारा हरिद्वार जाते हुये मार्ग दुघर्टना में उसकी दर्दनाक मृत्यु हो गयी थी।
मैं ये पत्र उसकी आखिरी निशानी के तौर पर सहेजे था।,,,,
और पत्र अब देखने या पढ़ने का मन नहीं किया।दो घंटे बीत गये थे मैं अब तक एक भी कागज़ फेंकने वाला नहीं निकाल पाया था।मेरे में इतना साहस नहीं है कि मैं इन यादों से लबरेज कागजों को अपने जीवन काल में खुद से जुदा कर सकूँ।
लिहाजा जैसे बक्सा खोला था उसी तरह फिर बन्द कर दिया है।
पर आज एक निर्णय लेने में, मैं जरूर सफल हो गया हूँ।
"अपना कोई भी सामान या कागज़ अपने सामने क्यों फेंकू?क्यों उसको अपने से अलग करने का दुख सहूँ?मैं अपनी यादों की धरोहर को क्यों न अंतिम सांस तक अपने पास रखूँ?
मेरे न रहने पर इन सबका जिसको जो करना हो करे,मैं तब कौन देखने आ रहा हूँ।
ये सोच कर मन का एक बोझ उतर गया है।
यायावर गोपाल खन्ना