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बेचारे अन्नदाता किसान
भारत किसानों का,एक कृषि प्रधान देश हैं।देश की तीन चौथाई आबादी कृषि पर निर्भर है। कहने को कई सरकारी योजनाएँ पारित हुई, ग्रामीण बैंक व समितियाँ खुली किन्तु कृषकों की दशा दयनीय ही रही। कटु सत्य यह है कि जिनकी जमीन हैं,वे किसान नहीं। किन्तु खेत विहीन गरीब ही असली किसान हैं।
किसान शब्द आते ही कल्पना में जो तस्वीर उभरती है,,घुटने तक धोतिनुमा फ़टका,बदरंग अंगरखा या कुरता व सर पर गमछा। यह गमछा बहुपयोगी है,हाथ व पसीना पोछने के साथ पोटली बाँधने के काम भी आ जाता है। खेत पर झोली में सोए बच्चे को मक्खी मच्छर से भी बचा लेता है।
सूरज उगने के साथ ही यह अपने हल बैल लिए चल पड़ता है। खेत जोतना, बोना,फसल तैयार करने में ख़ुद भी बैल जैसा जुता रहता है।
अंत में जमींदार से मिलता है बटाई का हिस्सा। कमाई में से कर्ज़ा भी काट लिया जाता है। ऊपर से मालिक की गालियाँ। शिक्षा के अभाव में इन्हें नीचा ही समझा जाता है।
किसी सभा आदि में या बस में ये बेचारे ख़ुद ही नीचे बैठ जाते हैं।
मात्र कृषि पर निर्भर होने से इन्हें अन्य कुटीर उद्योगों में प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।
सबसे बड़ी विडंबना है कि हमारी खेती वर्षा का जुआँ है। बिन बरखा हाल खस्ता। सरकारी मुआवज़ा भी मालिक की जेब में जाता है। अतिवृष्टि व अनावृष्टि इनके जीवन के लिए श्राप हैं।
कई बार लागत भी नहीं निकलती। एक दो रुपए किलो आलू प्याज़ बेचकर इनके हाथ में क्या आता है। ऐसे में कर्जे खर्चे आदि समस्याएँ इन्हें आत्महत्या करने को मज़बूर कर देती हैं।
आज के शिक्षित नौजवान खेती की बजाय सफ़ेदपोश नौकरी करना पसंद करते हैं। यदि नई तकनीकों पर खेती हो तो भारत भूमि पुनः शस्य श्यामला हो जाएगी।
जय किसान ही तो है देश की आन बान और शान।
आखिर कब तक हमारे ये खेतिहर मज़दूर हल चलाते रहेंगे। ट्रेक्टर,थ्रेशर आदि आधुनिक मशीनें मुहैया कराई जाए। सहकारी व सामुहिक खेती का प्रावधान हो। नए तरीक़े, खाद व अन्य सुविधाएँ ही उन्नत खेत , ख़ुशहाल किसान बना सकते हैं। जय किसान।
सरला mehtaa