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ख़ुद ही बिछ जाता है - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

ख़ुद ही बिछ जाता है

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"ख़ुद ही बिछ जाता है"

सेवंती बड़े शौक से शर्ट दिखाती है, " यह रंग तुम पर खूब फबेगा।" निहार कुछ टालते हुए कहता है, " उहुँ,,, ठीक है,ज़रा हल्के रंग का होता,,।"
सेवंती सोचती है, " गए साल तक माजी जो भी पसंद करती बनाती , निहार कभी नुस्ख नहीं निकालता। अब देखो मेरा कोई काम उसे मन से पसन्द नहीं आता। हाँ सीधे सीधे कुछ नहीं कहता। कल घण्टे भर मगजमारी की,बेसन-गट्टे बनाने में। और तारीफ़ के नाम,,,इसमें हींग का स्वाद नहीं आ रहा है। "
जब माजी थी, उनके हाथ की हर चीज़ तारीफे काबिल। हाँ ऐसा भी नहीं कि निहार उसकी बुराई करता है।
दिलो जान से प्यार करता है।उसकी हर ख़ुशी का खयाल रखता है। अपने ससुराल पक्ष को अपना परिवार मानता है। वह निश्चय करती है कि आज वह पूछ कर ही रहेगी।
बगीचे में चाय पीते पीते वह धीरे से पूछती है, " एक बात बताओगे,
मैं सब कुछ वैसे ही करती हूँ जैसा माजी से मैंने सीखा। लेकिन एक बात समझ नहीं पाती कि आपको माजी की सब बातें अच्छी लगती थी। मेरे में कामों में तुम कमी निकाल ही देते हो।"
निहार प्यार से समझाता है, "अरे मेरी रानी को बुरा लग जाता है। देखो,ये हरसिंगार का पेड़ अपने सारे फूल स्वयं ही झरा देता है। इन्हें तोड़ना नहीं पड़ता। सेवंती का "तो क्या" सुन निहार चुटकी लेता है , " यह बात जब तुम माँ बनोगी ना सब,,।"
सरला मेहता

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Sudhir Kumar

Sudhir Kumar 3 years ago

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