कवितालयबद्ध कविता
यूँ ही बस बैठे ठाले
करके मन को अनायास ही
बीते कल के चंद लमहों के हवाले
यूँ ही बस बैठे ठाले
वो लमहे कुछ मतवाले
बडे़ सहज से, फिर भी लगते
जाने क्यूँ सबसे निराले
जटिल और बोझिल से
बंद, घुटते से एक दायरे से
बाहर आकर बन सरल
बहते पानी से तरल
ढलकर कुछ तरंगों में
चहकते और महकते से
और कभी बहकते से
कुछ बिंदास उमंगों में
खोजते बस
आसपास ही खुद के,
राहतों और चाहतों के
अहसास में सिमटे किनारे
यूँ ही बस बैठे ठाले
कुछ मौजों पर होकर सवार
मायूसियों की भँवरों में
डूबते मन की नैया की
बनकर मुकम्मल सी पतवार
हर मुश्किलों की जंग में
बेफिक्री की बाँह थामे,
बोलती सी खामोशी में
आसपास बिखरी हुई
छोटी-छोटी सी खुशियों के
एक खुमार की मदहोशी में
मन के बंद झरोखों को
खोलकर कुछ झाँकते से
मन की चादर पर यादों के
बेशकीमती से कुछ मोती टाँकते से
खुले हाथ से आकर अंदर
बनकर औघड़ दानी शंकर
पीकर हर चिंता का विष
अनायास ही पागल मन को बाँटते से
रूखे, सूखे, भूखे मन को
खुशनुमा अहसासों के
छोटे-छोटे से दोनों में
छोटी-छोटी सी खुशियों के
अमृत जैसे कुछ निवाले
यूँ ही बस बैठे ठाले
करके मन को अनायास ही
बीते कल के चंद लमहों के हवाले
यूँ ही बस बैठे ठाले
द्वारा: सुधीर अधीर