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"काश ! होली खेल लेती"
# किस्सा/कहानी,,,, संस्मरण
जब जब यह रंगों का त्यौहार आता है,मैं अतीत की यादों में खो जाती हूँ। अपने धीर गम्भीर स्वभाव के चलते मुझे इन सतरंगी रंगों से होली खेलना बिल्कुल पसंद नहीं। यह कहाँ की बुद्धिमानी कि पहले घर को व ख़ुद को रंगो फिर साफ़ करो।
लेकिन इसके विपरीत मेरे खुशरंग पति को होली पर मस्ती में रंगना व रंगवाना बहुत पसंद था। होली मनाना,सबसे मिलना व मिठाई खाना खिलाना कभी नहीं भूलते।
पुलिस विभाग में होने से देर रात घर पहुँचते ही एक एक को रंग डालते। मैं कहाँ छूटती भला। लाख बचने की कोशिशों को नाकामयाब तो होना ही था। वो चाहते कि मैं भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लूँ। लेकिन मैं तो बस बुत बनी खड़ी हो जाती। और वो महाशय, जी भरकर रंगों से सरोबार कर देते। मैं चिल्लाती रहती,"अरे! घर में नहीं ,बाहर खेलो।" हमेशा मेरी बात मानने वाले पतिदेव सुनने को ही तैयार नहीं होते। और दूसरे दिन सब पुलिस- वालों की होली। बस फिर वही रंग गुलाल।
अब बीस साल बाद वह धमाल मस्ती घर में पोता करता है तो वो होलियाँ याद आए बिना रहती। काश ! होली खेल लेती मैं भी उनके साथ।
सरला मेहता