कहानीलघुकथा
कागज की नाव
यह 14 दिन नहीं, 14 साल लग रहे हैं, प्रभु राम ने वनवास कैसे काटा होगा, उसका सहज ही अनुमान लगा सकती हूं। उठते- बैठते, सोते- जागते बस परिणाम क्या होगा, इसी की उधेड़बुन में पल- पल पहाड़ के समान बीत रहा था।आज जब मोबाइल की घंटी बजी, एकबारगी तो दिल की धड़कन रुक सी गई, क्या समाचार होगा!
ड्राइंग रूम में बैठे अपने बेटे नाहर जो अभी केवल आठ साल का है और बेटी नेहा पांच की, उन पर नजर दौड़ाई ,दोनों आंखों में सौ- सौ सवाल लिए मेरी तरफ ही देख रहे थे।
मैंने मोबाइल का स्पीकर ऑन कर दिया। उधर से आवाज़," आई आप फलां- फलां अस्पताल पहुंच जाइए,फौरन।"
लगा, पैरों में किसी ने बड़े-बड़े पत्थर बांध दिए हों। एक-एक पग उठाना भारी लग रहा था। बच्चों ने दोनों तरफ से कंधे का सहारा दिया।उनके सर पर हाथ फेर कर, चेहरे पर नकली मुस्कान ओढ़कर, जल्दी ही मैं नीचे उतरी।गैराज से कार निकाली, कब स्टार्ट की और कब अस्पताल पहुंच गई, मुझे खुद नहीं पता। हां रास्ते में मन्नतों का दौर चलता रहा। ईश्वर धवल को ठीक रखना, यह करूंगी,आइंदा से यह नहीं करूंगी और कितना कुछ उनसे कहने को रह गया है, कितना कुछ सुनना रह गया है ,अब कभी नहीं रोकूंगी, अब कभी नहीं टोकूंगी, बस, एक बार ,बस एक बार,...
एक झटके से गाड़ी का दरवाज़ा खोल कर लगभग भागते हुए रिसेप्शन तक पहुंच गई। लगा गिर पडूंगी, नजदीक खड़े एक डॉक्टर ने लपक कर संभाल लिया और कहा," कांग्रेचुलेशन ही इज नेगेटिव !"यस, यस नेगेटिव!"
" व्हाट, रियली?ओ गॉड!"
यह "नेगेटिव" शब्द कितना बुरा लगा करता था ,किंतु आज इतना भला..., कितना अपना सा लग रहा है,.… ही इज नेगेटिव "जोर- जोर से चिल्ला कर मैं अस्पताल को गुंजा देना चाहती थी.. ही इज नेगेटिव।"
धवल आ रहे थे और दोनों तरफ से मेडिकल स्टाफ उन पर पुष्प वर्षा कर रहा था, सभी तालियां बजा रहे थे।
...तो मेरी कागज की नाव मज़बूत निकली,हर कागज की नाव डूब नहीं जाती, मेरी नाव तूफानों को मात देकर इठलाती- बलखाती किनारे आ लगी थी।
हमारे छोटे- छोटे बच्चों की दुआओं और डॉक्टरस के
प्रयासों से मौत हार गई.., जिंदगी तेरी जीत हुई.. धवल लौट आए।
मौलिक
गीता परिहार
अयोध्या