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"ईश्वरीय उपहार" - Aarti Ayachit (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकसंस्मरणलघुकथा

"ईश्वरीय उपहार"

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  • 18 Min Read

"ईश्वरीय उपहार"

यह सच है कि जीवन में जब स्थिति हमारे हाथ में नहीं होती है, तो हर व्यक्ति परेशान हो जाता है। कुछ ऐसा ही हुआ था क्षमा के साथ, लेकिन सबसे बड़ी बहन जो ठहरी! जिसके चार छोटे भाई थे। पिता सरकारी प्रेस में थे, एक दिन अचानक ही बीमार पड़ गए और बस तकलीफ हुई इसलिए उनके ऑफिस के सहयोगी साथियों ने उन्हें घर पर छोड़ दिया था! और सिर्फ पीने के लिए पानी ही मांगा था उन्होंने, चंद मिनटों में पसीने में तरबतर हो गए थे और एकाएकी स्वर्ग सिधार गए।
घर पर एक भाई मौजूद था, जिसको कुछ भी समझ में नहीं आया कि पिताजी कुछ ही देर में सबको अकेले छोड़कर चल बसे। क्षमा तो ऑफिस में थी! "अब घर-परिवार की सारी ज़िम्मेदारी क्षमा पर आ गई, अब माँ के साथ-साथ भाईयों का भी ध्यान रखना आवश्यक हो गया।"
वह अपने जीवन में किसी भी स्थिति का सामना करने और आर्थिक मदद करने में सक्षम थी, जैसे उसने अपने दिमाग को मानों पहले से ही मजबूत कर रखा  था।  वह नगर निगम में सेवारत थी और वहां का माहौल तब इतना अच्छा भी नहीं था, लेकिन वह मां को संबल देते हुए घर की देखभाल करने की कोशिश कर रही थी और सारा काम बड़ी लड़की कर रही थी|

अब माँ को इस बात की चिंता थी कि क्षमा की शादी कैसे होगी, लेकिन वह स्वयं के लिए सभी स्तंभों के बारे में  बिना सोचे अपने भाईयों को   अच्छी शिक्षा दिलाने की कोशिश कर रही थी और वह सफल भी रही|
जीवन में कभी-कभी हमें अपनों के लिए ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं क्योंकि हम उनके लिए दुनिया में आए हैं!"और यही सकारात्मक सोच ही तो हमें अपनों के नज़दीक लाती है!जीवन में मुश्किल वक्त कभी कहकर नहीं आता है साथियों, तब अपनों का साथ ही जिंदगी को बेहतर बनाने में मददगार साबित होता है।
यदि क्षमा उस समय अपने ही बारे में अगर सोचती तो..........आप स्वयं मन ही मन विचार करें! जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएगा| फिर क्षमा ने भी वही किया जो उस वक्त उसके हाथ में था।  वह अपने भाईयों के बेहतर भविष्य के लिए लगातार प्रयास कर रही थी।
वह हिंदी भाषा में एम.ए. उत्तीर्ण थी।  उसने अच्छे अंकों के साथ हिंदी की परीक्षा उत्तीर्ण करने के कारण ही, उसे जल्द ही ऑफिस में उसका लाभ भी मिला और उसे अनुभाग प्रमुख के रूप में पदोन्नत किया गया।
परिवार में आर्थिक पक्ष मजबूत होने से धन की कोई कमी नहीं हुई और भाईयों की शिक्षा सुचारू रूप से पूरी हुई।  हालाँकि, माँ को इस बात की चिंता थी कि वह दिन-ब-दिन बड़ी हो रही है, लेकिन क्षमा ने स्वयं के विवाह के बारे में न सोचते हुए, अपने भाईयों के विवाह की व्यवस्था की और बहुत धूमधाम से उनके विवाह भी रचाए! मां बहुत ही खुश थी और वह इस तरह अपने परिवार के साथ पूरे अपनेपन के साथ फिर से जुड़ गई।

"उसकी सकारात्मक सोच यही थी  कि मैं हमेशा सभी की मदद करती रहूंगी। तत्पश्चात भाइयों को अपने बच्चों की शिक्षा की खातिर अलग-अलग जगहों पर जाना पड़ा और फिर वे भी अपने परिवार की जिम्मेदारियों में मशगूल हो गए।"
हालाँकि, क्षमा अपनी माँ के साथ रही।  उसकी पूरी सेवा भी कर ही रही था।  कुछ दिन ऐसे ही गुजरे, लेकिन हम यह नहीं जानते हैं कि कभी-कभी परिस्थिति हमारे हाथ में नहीं होती है।  एक दिन, क्षमा मंदिर के दर्शन के लिए निकली और मंदिर की सीढ़ियों पर एक नन्हीं सी परी मिली! मां भी साथ ही थी।  पंडितजी ने आशीर्वाद दिया! स्वीकार कर लो बेटी। हो सकता है, यह ईश्वरीय उपहार हो।
तब माता ने कहा, "बेटी क्षमा पंडित जी सही कह रहे हैं, वो हम कहते हैं न, ईश्वर प्रदत्त लक्ष्मी को स्वीकार करने में ही परम आनंद की अनुभूति है| उस नन्हीं परी को जीवन में एक नई दिशा दे, यह महसूस करते हुए कि यह ईश्वर का आशीर्वाद है, ताकि अपना जीवन भी सार्थक हो सके! तू उसके लिए एक अच्छी एवं सक्षम पालनहार मां  साबित होगी! यह मेरा आशीर्वाद है बेटी।
जी हां साथियों सुख-दुख प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आते हैं! पर आई हुई परिस्थितियों का सामना करने में अपनों का साथ शामिल हो तो जिंदगी हसीन हो जाती है।
मेरे प्रिय पाठकों बताइएगा जरूर फिर कैसी लगी यह कहानी? मुझे आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा|
यदि आप मेरा लेखन पसंद करते हैं तो आप सभी मेरे अन्य ब्लॉग पढ़ने हेतु भी आमंत्रित हैं।
धन्यवाद आपका।
आरती अयाचित

स्वरचित एवं मौलिक
भोपाल

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Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

अच्छी कोशिश है पर इसे लघुकथा की अपेक्षा लघु कथा कहना ज्यादा सही होगा

Aarti Ayachit3 years ago

धन्यवाद आपका

दादी की परी
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