कहानीसामाजिकहास्य व्यंग्यप्रेरणादायकअन्य
नामुमकिन कुछ भी नहीं
धारावाहिक
भाग 1.
सुबह के छ बजे हैं।बेरहम अलार्म बजने लगा है ।आज सोमवार की सुबह है, इतवार नहीं, उठना ही होगा..अलार्म अभी भी बज रहा है।
सीमा ने करवट ले ली,उसे तो दोपहर की शिफ्ट में जाना है।सुयश ने कसमसाते हुए रजाई खिसकाई ,खुद को गर्माहट से निकालने की जद्दोजहद की ...इसीमे पांच मिनिट और बीत गए।वह अच्छी तरह जानता है उन सरकते पलों की कीमत,मगर बला की ठंड ..उसकी सोच पर हावी हो रही है।अब और देर नहीं कर सकता।रजाई से पांव निकाले, फर्श पर रखे, ठंडे फर्श ने बदन में सिहरन भर दी।इससे पहले कि उसका इरादा बदले.. दौड़ कर बाथरूम में घुस गया।
बाथरूम के शीशे में अपने आप को देखा।शादी को पंद्रह बरस हो गए।वह बयालीस का नहीं ,बावन का दिखता है।उसे लंबी छुट्टी की या कम से कम कुछ आराम की ज़रूरत है।बरसों पहले सुबह की कसरत उसकी दिनचर्या का एक अहम हिस्सा हुआ करती थी।वह सुबह जल्दी उठकर टहलने जाता,वहीं तगड़ी कसरत करता,घर आकर शॉवर लेता और बढ़िया नाश्ता करता।नाश्ता करते हुए दिन के अख़बार की सुर्खियां पढ़ता,तैयार होने और ऑफिस के लिए निकलने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता।उसका ऑफिस काफी दूर था ।सुबह सड़क पर ट्रैफिक कम होने की वज़ह से आराम से रेडियो पर ख़बरें सुनते हुए साठ की स्पीड में गाड़ी चलाते हमेशा टाइम पर ही पहुंचता था।
उसने जल्दी से गीज़र चलाया।ब्रश करने और शेव करने तक पानी गर्म हो गया।शॉवर लेकर बाहर निकला ।कपड़े पहनते हुए सीमा पर एक निगाह डाली, वह अभी भी सो रही है। टाई की गांठ बांधते हुए अपने जीवन की गांठों को सुलझाने की कोशिश करने लगा।एक बार फिर ख़ुद को आईने में देखा।पहचानने की कोशिश की।
कहां ,क्या रीत रहा है ! कुछ तो है जो बदलाव चाहता है।क्रमशः....