कहानीप्रेरणादायक
शीर्षक: "बातों के परिंदे"
साँझ का सूरज जब भी अपनी तपिस खुद में समेट कर, पश्चिम की ओर अग्रसर होता था, तब सभी बच्चे अपने -अपने घरों से निकल कर, खेलने के उद्देश्य से गली में एकत्रित हो जाते !
बच्चों के साथ साथ बच्चों की दादी माँ उनकी देख-रेख के बहाने अपनी पंचायत लगाने से बिल्कुल भी न चूकती थी!
उस पंचायत का मूल तथ्य,अक्सर बातों के परिंदे उड़ाना होता.!
जैसे खुद को श्रेष्ठ साबित करना, दूसरों के निजी जीवन मे हस्तक्षेप करना तथा इधर-उधर की चुगली टाइप बातें तो मान्यता प्राप्त होती ही है!
"दीदी आजाओ.. आप भी खेलो हमारे साथ"
छोटी सी चारु ने दरवाजे पर बैठी आकांक्षा का हाथ पकड़ते हुये कहा
अब तक जो आँखे शून्य को ताक रही थी, अचानक चारु को देख कर मुस्कुरा दी!
"चलो खेलते हैं"
कहते हुये आकांक्षा ने अपने दुपट्टे को कमर से बांध कर खुद को बच्चों संग खेलने के लिए तैयार किया!
अब आकांक्षा बच्चों के साथ कभी आँख मिचौली तो कभी पकड़म पकड़ाई खेल रही थी!
"शादी के लायक हो गई, बेशर्म..कैसे हँस हँस कर, अब भी बच्चों के साथ खेल रही है"
फुसफुसाहट के साथ महिला पंचायत से शीला आंटी की आवाज सुन कर आकांक्षा ने खुद को संभाला, तत्क्षण ही उसकी आँखों के सामने दो साल पूर्व की घटना बिजली की भांति कौंध गई!
पिता की मृत्यु ने जब आकांक्षा को बुरी तरह से तोड़ दिया था!
वो चुपचाप खुद में ही घुटती सी जा रही थी, जैसे सभी से रिश्ता तोड़ कर शून्य में ही बसेरा कर लिया हो..!
तब ये ही शीला आंटी ने सांत्वना देते हुये समझाया था
"बेटा किसी के जाने से ज़िन्दगी खत्म नही होती, खुद को सम्भालो..... पुरी ज़िन्दगी है तुम्हारे सामने इसे हँस कर जीओ..!!"
आकांक्षा सोच में पड़ गई..
"क्या ये वही शीला आंटी है जो कल तक मेरे दुख से दुःखी थी ..
और आज मेरी खुशी भी सहन नहीं कर पा रही!
"दीदी आप आउट हो गई"
चारु ने आकांक्षा को हाथ से छू कर चहकते हुये कहा!
"हाँ शायद मैं आज फिर आउट हो गई"!
कहते हुये आकांक्षा भीगी पलको के साथ तेज कदमो से अपने घर के अन्दर चली गई!
आकांक्षा अपने कमरे में चुपचाप जा कर फुट फुट कर रोने लगी!
तभी किसी के मजबूत स्नेहिल हाथो के स्पर्श को अपने सर पर महसूस कर, आकांक्षा ने सर उठा कर देखा तो सामने सरु खड़ा था !
उसने अपनी माँ की बातें सुन ली थी और साथ ही आकांक्षा की मनोस्थिति को भी भाँप चुका था!
आखिर बचपन से दोस्त जो थे दोनो..!!
"तुम्हारी दशा समझ सकता हूँ अक्षु"
कहते हुए सरु ने स्नेह से आकांक्षा का चेहरा अपने हाथों में भर लिया
"मम्मी की बातें मुझे भी चुभी है"
उसने एक हाथ से उसके आँसू को पोछा और मुस्कुराते हुये अपनी बात जारी रखी
"ये दुनिया है अक्षु... यहाँ कोई तुम्हारे हालात, तुम्हारे दर्द को नही समझेंगे,
उन्हें तुम्हारे दुख से आपत्ति है तो खुशी से जलन भी.!
क्षणिक मौन के उपरांत सरु फिर बोला
इस दुनिया में सब बातों के ही तो परिंदे उड़ाते हैं ..... तुम भी एक कान से सुनो दूसरे से उस परिंदे को आज़ाद कर दो..
और भूल जाओ कौन तुम्हारे बारे में क्या बोलता है...
क्षणिक विश्राम के उपरांत सरु ने आकांक्षा के कान में शरारती लिहाज से कहा..
"नही तो परिंदे दिमाग मे डिप्रेशन के अण्डे भी दे सकते है"
आकांक्षा ने सुनते ही सरु की ओर देखा जो किसी छोटे बच्चे की तरह मुँह बनाये था!
आकांक्षा सरु की इस मासूमियत पर खुद को हँसने से न रोक सकी....!
©️पूनम बागड़िया "पुनीत"
(दिल्ली)
स्वरचित, मौलिक रचना