कविताअतुकांत कविता
बटुआ की याद...
याद है मुझे वह दिन
जब मैं पहली बार
पैंट बदलने के चक्कर में
अपना काला बटुआ
पहले वाले पैंट में
भूल गया था
और जल्दबाजी में
निकल गया था अपने आफ़िस
इस बात से बेखबर हो
कि पटुआ पास में नहीं है
ध्यान तब पड़ा, जब
रास्ते के एक पेट्रोल पंप पर
पेट्रोल भराने के बाद
अपनी जेब पर हाथ रखा
तो मेरी जेब खाली थी
कुछ क्षण तो ऐसा लगा
जैसे कि सांप सूंघ गया हो
लेकिन पुनः स्मरण हुआ
वह सम्पूर्ण घटनाक्रम
कि कैसे आज मै
बटुआ विहीन हो गया
खैर अब सारी चिंता यह हो गई
कि पेट्रोल की कीमत
दिया कैसे जाय....
इधर-उधर की जेब को टटोला
शर्ट की जेब में
दस-दस रुपये के कुल
पाँच नोट ही मिले
मन में झुंझलाहट हुई
दो सौ रुपये कहाँ से आये
एटीएम भी बटुआ के साथ
आराम फ़रमा रहे थे
चेहरे पर बेचैनी को भापकर
पंप के वर्कर ने पूछा
क्या हुआ गुरू जी बटुआ भूल गए
मेरे चेहरे की हवाइयां उड़ने लगी
मैंने संकोच करते कहा
हाँ.. जल्दबाजी में भूल गया
इस समय पचास रुपये ही है
एटीएम भी नहीं है फिर...
वर्कर ने मुस्कराते हुए कहा..
'गुरू जी आप तो रोज के गाहक है'
यह रुपया कल दे दीजिएगा
पंप मालिक को मैं दे दूँगा
यह सुनकर मन में तसल्ली हुई
मैंने उस पंप के वर्कर को
दिल से धन्यवाद किया, और
कालेज से लौटते समय
उसका बकाया वापस कर दिया
मन को तसल्ली हुई
लेकिन पूरे दिन उस घटना का प्रभाव
मस्तिष्क पर बना रहा...
डाॅ. राजेन्द्र सिंह राही
(बस्ती उ. प्र.)