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प्यार से बढ़कर कुछ नहीं - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

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प्यार से बढ़कर कुछ नहीं

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प्यार से बढ़कर कुछ नहीं

मैं मोबाइल पर बात कर रही थी,पीछे से,"एक्सक्यूज मी"सुनकर मुड़ी देखा,एक सुदर्शन व्यक्तित्व का लंबा,आकर्षक नौजवान आंखों पर काले चश्मे लगाए रास्ता मांग रहा था। मैं देर तक उसकी ओर देखती रही, तभी चपरासी ने कहा,"मैडम,साहब आपको याद कर रहे हैं।"

अंदर पहुंच कर देखा वह सुदर्शन युवक वहां बैठा था। प्राचार्य ने उससे मेरा परिचय कराते हुए कहा,"आप हैं हमारे नए इंग्लिश के प्राध्यापक श्री श्यामल सरण।"

प्राचार्य अब मेरी ओर देखते हुए बोले,"आप हैं मिस अलका,इंग्लिश की प्राध्यापिका।"अब हम दोनों ने एक साथ,एक - दूसरे को देखा।" नमस्कार, आपसे मिलकर खुशी हुई।"उसने कहा मैंने कहा ,"मुझे भी खुशी हुई ।"मुझे वास्तव में बहुत खुशी हुई थी।कम से कम एक तो सुदर्शन चेहरा यहां देखने को मिलेगा।

दूसरे दिन कॉलेज जाने की उत्सुकता मुझे कुछ अधिक ही हो रही थी। कैंपस में घुसते ही मेरी नजरें उसे ढूंढने लगीं। मैंने दूर से देखा।वह सनग्लासेस लगाए अपनी कार से उतर रहा था।कितना डेशिंग! पूरा बॉलीवुड स्टाइल हीरो लग रहा था।

मैं आकर बढ़ गई क्योंकि मेरी क्लास थी। किंतु फ्री पीरियड होते ही मेरी निगाहें उसे ढूंढने लगीं। लेकिन वह स्टाफ रूम में नहीं था, आसपास भी नहीं दिखाई दे रहा था। यह बेचैनी क्यों? मैं कोई षोडशी नहीं हूं, 28 साल की परिपक्व युवती हूं, ऐसा मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। यह मुझे क्या हो रहा था!

मुझे रातों को सपनों में भी वही दिखाई देने लगा। वह मुझे इग्नोर तो नहीं कर रहा था, लेकिन उसका मुझ में कोई इंटरेस्ट हो,ऐसा भी मुझे नज़र नहीं आ रहा था। यह उसकी बेरुखी या कुछ और.. जो भी हो ,उसका यह व्यवहार मुझे बेचैन किए दे रहा था।

दूसरे दिन में एक निर्णय करके कॉलेज पहुंची आज मुझे उससे बात करनी ही होगी। बहुत हुआ!

मैं लपक कर उसके पास पहुंची है।मैंने कहा," उस दिन के बाद से आप दिखाई नहीं दिए,सब ठीक तो है?" मैं मन ही मन सोच रही थी कि कहीं वह यह न सोच बैठे कि मैं उसके गले पड़ रही हूं।मैंने बात संभालते हुए कहा," मिश्र शरण जल्दी ही हमारे कॉलेज में एक कवि सम्मेलन होने जा रहा है मैं चाहती हूं उसके संचालन में आप मेरी मदद करें।"

" मैं और कवि सम्मेलन! मैं ..आयोजन.. "वह चौंकते हुए बोला।

मन ही मन मुझे खुद पर गुस्सा भी आया, यह बात मैंने क्यों रखी, मगर बात संभालते हुए मैंने तुरंत कहा, "देखिए,आप मेरी मदद कर सकते हैं,कई काम होंगे,जैसे; पोस्टर बनेंगे, एडवर्टाइजमेंट होगी, मंच सज्जा होगी, अनेकों काम होंगे।"दरअसल मैं यह मौका हाथ से गंवाना नहीं चाहती थी। मैं अधिक से अधिक समय उसके साथ बिताना चाहती थी।

मैंने कहा,"चलिए ,अभी मैं प्राचार्य जी से कह कर आपका नाम अपने प्रोग्राम में इंक्लूड करवाती हूं।"बात करते-करते हम स्टाफ रूम तक आ गए उसने अभी भी चश्मा उतारा नहीं था। मुझे कुछ अजीब भी लगा। मगर मैंने कुछ पूछा नहीं। हम दोनों प्राचार्य के ऑफिस आ गए।मैंने उसका नाम प्रोग्राम में शामिल करवाने की चर्चा प्राचार्य से की।तभी उसने प्राचार्य से कहा ,"सर, मैं..उद्घोषक तक तो ठीक है... मेरी उपयोगिता पोस्टर.. मैं..अंधा..?"

यह सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन खिसकती महसूस हुई।मैंने घूमकर उसकी तरफ देखा, तो क्या इसी वजह से जो मैं समझती थी वह मुझे अनदेखा कर रहा है, उसका अनदेखा करना नहीं, बल्कि वह देख ही नहीं सकता था!

मैंने कहा," कोई बात नहीं, यदि तुम ना करना चाहो तो मैं किसी और को कह दूंगी। इतना कह कर मैं ऑफिस से तेज तेज कदमों से बाहर आ गई। दिनभर मेरा किसी काम में मन नहीं लगा। रात को भी मुझे नींद नहींआई। करवटें बदलते रात बीत गई। ऐसा लगभग सप्ताह भर रहा। बार-बार मेरी आंखों के आगे उसका वह सुदर्शन व्यक्तित्व, निहायत शरीफाना अंदाज घूमता रहा।

क्या सिर्फ उसकी आंखें ना होना ही उसकी सारी खूबियों को धूमिल कर रहा था? नहीं, यह नहीं होगा।

दूसरे दिन कॉलेज पहुंचकर मैं लैब में पहुंच गई।मैंने बिना किसी भूमिका के कहा,"मुझे तुमसे बहुत जरूरी बात करनी है ,क्या हम कुछ देर के लिए कैंटीन चल सकते हैं?" कैंटीन पहुंचकर मैंने कहना शुरू किया,"तुम देख नहीं सकते हैं, यह जानकर उस दिन मैंने सोचा,मैं तुम्हें यह बात जो आज कहने जा रही हूं, कभी नहीं कर पाऊंगी। मेरा दिल टूट गया था।मैंने सोचा था, हम अच्छे दोस्त बन सकते हैं ,मगर इतने दिनों में मुझे एहसास हुआ कि यह दोस्ती से कुछ अधिक ही था। यह था मेरा तुम्हारे प्रति प्रेम।मुझे एहसास हुआ कि मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।यह एक निस्वार्थ प्रेम ही है,इसे दया मत समझना।दुनिया के लिए बेशक यह अजीब बात होगी, मगर मैं सचमुच तब से प्रेम करने लगी हूं।जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था,तबसे। ना मत करना, प्लीज़.. प्लीज़।" यह कहते हुए मैंने उसके दोनों हाथ थाम लिए।

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दादी की परी
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