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नया ख़्वाब - Pratik Prabhakar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

नया ख़्वाब

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आज   से ,    अभी   से
काहे  का    रोना      है? 
घुटने  तक   पहुँचा    मैं।
अब उठ  खड़ा  होना  है।

दाग लगे   जो  दामन  पर
कौंधता कुछ जो   सीने में 
कलुषित  जो   वक़्त   था  
नीर से   उसको   धोना है।

तुमने जो सुलाया बहुत हुआ
मय,  मदिरा   दे   दे के मुझे
प्रभात  हो   गयी है, समझे!
न मुझको   अब   सोना  है।

बादल गहरे हो चाहे जितने   
रंग तो    सूरज  से  होता है।                 
अपना देखो मेरा वक़्त नया ,               
  नया   ख़्वाब   पिरोना   है।

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