कहानीप्रेरणादायक
वह घटना
दोपहर का वक्त है,धूप की तपिश और पेट के अंदर की तपिश कौन सी ज्यादा है, कह नहीं सकता।उस रेलवे स्टॉल पर सजी हुई ठंडे पानी की बोतलें, मेरी प्यास को और भी बढ़ा रही हैं।
पूड़ी- आलू के खोमचे के इर्द गिर्द खड़े बहुत से लोग दोने भर पूड़ी -सब्जी खा रहे हैं,क्या ये मुझसे भी ज्यादा भूखे हैं.? इन्होंने भूख देखी है...?
और बड़ी हिम्मत कर, मैं एक नौजवान की ओर बढ़ा जो दिखने में रहमदिल सा था,एक दो बार उसने उचटती सी नज़र मेरी ओर डाली भी, जिससे मेरी आस और भी मजबूत हुई ।
मैने कहा ,...बाबू, एक पूड़ी खिला दो।
वह नौजवान खामोश रहा,फिर उसने मेरी ओर एक पूड़ी उछाल दी।लपक कर मैने पूड़ी को गपक लिया,..उससे एक और पूड़ी की गुज़ारिश की..।गनीमत रही कि मैं कुछ दूर था,वरना..वह गुस्से से लाल- पीला हो गया,बोला,...रहम का ज़माना नहीं रहा,जनाब पूड़ी खायेंगे.. !भर के दोना खायेंगे... ! भिखारी कहीं का.. और उसने मेरी ओर कुछ गालियां भी उछाल दी,जो मैने नहीं लपकी ,वहीं छोड़ दीं और आगे बढ़ गया।
कहीं पढ़ा था -
गजब की धूप है शहर में,
फिर भी पता नहीं क्यों,
लोगों के दिल पिघलते नहीं ।
भूख, ग़रीबी और समाज की उपेक्षा से एक दिन मैने ठान लिया ,बस ,अब और जिल्लत की ज़िंदगी नहीं। दूसरे शहर आ गया।यहां एक गेराज में काम मिल गया।छोटे - मोटे कैसे भी काम से मैं गुरेज नहीं करता था। एक समय वह भी आया जब मैने गाड़ी चलाना सीख लिया।
वहां से निकल कर में ट्रक चलाने लगा।ट्रक के पहियों की तरह मेरा भी मन घूमता और घूम फिर कर वहीं अटक जाता... जब दूसरी पूड़ी के लिए मुझे शर्मिंदा होना पड़ा था।
इस दौरान बहुत से बेघर लोगों से ,उनकी बेबसी से दो चार हुआ।सबसे ज्यादा जिस बात ने मुझे विचलित कर दिया,वह थीं,लावारिस लाशें,राजमार्गों पर दुर्घटना का शिकार हुए लोग,जिनको लेनेवाला कोई नहीं होता था।
मैने निर्णय किया मैं उनका अंतिम संस्कार करूंगा। मैं जब ,जहां लावारिस लाश देखता ,पुलिस कार्यवाही के पश्चात ,उसका अंतिम संस्कार करता।
मैं ट्रक पर पानी और भोजन भी रखता और जो ज़रूरतमंद मिलते ,उन्हें यथासंभव देता।
वास्तविक जीवन और फिल्मी दुनिया में ज़मीन आसमान का फर्क होता है,मगर मेरे जीवन में फिल्मी घटना ही घटी!एक ऐसी लड़की मिली , जो मेरी निस्वार्थ सेवा से इतना प्रभावित हुई कि उसने मेरे साथ जीने मरने का वचन दिया। हमने घर बसा लिया।
यह मेरा सौभाग्य है कि पिछले 35 वर्षों से मेरी पत्नी ने बढ़ - चढ़ कर मेरा साथ दिया है। मुझे अपनी पत्नी पर गर्व है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि वह दुनिया की पहली स्त्री है,जिसने लावारिस लाशों को अपने कंधों पर ढ़ोया है।उसने कभी जाति,धर्म,स्त्री पुरुष का भेद नहीं किया।
हम अपने स्वजनों का अंतिम संस्कार करते हैं, उनकी स्मृति में स्मारक बनाते हैं,..समाधि बनाते हैं,..मृतक भोज देते हैं,..श्राद्ध करते हैं ,..क्यों ? मृतात्माओं की शांति के लिए ही न ? फिर ये अनाम मोतें हमें क्यों विचलित नहीं करतीं ? क्या इसलिए कि वे हमारे कुछ नहीं लगते ?
' आपकी नज़रों में सूरज की है इज्ज़त,
क्यों चिराग़ो का अदब नहीं करते ? ' ( उद्धृत)
वैसे यह भी पूरा सच नहीं है कि हम मानवीय संवेदना से शून्य हैं। बहुत से धर्मात्मा लोग और
दयालु लोग आगे आते हैं,आर्थिक मदद भी करते हैं।
एक बार हम अपना मकान बेच कर बेघर लोगों के लिए आश्रम बनाने की सोच रहे थे।तभी एक विदेशी सज्जन ने 25 लाख की सहायता की ।अब हमारे पास आश्रम है,जहां हम उन लोगों की भी मदद करते हैं ,जिनकी दिमागी हालत ठीक नहीं है। कईयों के तो शरीर में कीड़े पड़े होते हैं।हमारे साथ कुछ सेवाभावी जवान भी जुट गए हैं।जो उन्हें नहलाते हैं, कीड़े साफ करते हैं।तब तक मेडिकल सुविधाएं देते हैं, जब तक वे पूरी तरह निरोग नहीं हो जाते।फिर उन्हें छोटी मोटी हस्तकला सिखाई जाती है,जिससे वे व्यस्त रहने के साथ आत्मनिर्भर भी हो सकें।कई लोगों को उनके परिवारों से पुनः मिलवाने का भी काम हुआ है।मगर अधिकतर लोगों को अपने अतीत का ज्यादा कुछ स्मरण नहीं है।कुछ हमारे साथ ही रहना चाहते हैं।हम अपने प्रति उनके इस भरोसे को देखकर और भी उत्साह से भर जाते हैं।
मेरा प्रयास जारी है कि उन्हें स्वावलंबी बना सकूं और इनका भविष्य सुरक्षित कर सकूं।जब यह सिलसिला शुरू किया था.........
मैं अकेला था,..... जीने का मकसद ढूंढ रहा था।आज खुश हूं कि मकसद मिल गया है।
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया ।