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मूर्ति पूजन
अक्सर मन में यह सवाल उठता था कि भगवान के प्रति भाव की एकाग्रता और उनसे सहज संवाद के लिए मूर्ति पूजन की परंपरा का विकास कब हुआ होगा, कैसे हुआ होगा और क्यों हुआ होगा।तब अध्ययन करने पर पता चला कि भारतीय संस्कृति में हजारों साल पहले इस परम्परा का विकास हुआ था
और तब से लेकर आज तक यह परंपरा अटूट और अविच्छिन्न है।
ईसा के प्रारंभिक वर्षों में विश्व के अनेक भागों में एकेश्वरवाद पनपा तब भी यह परंपरा कायम रही। जब ईसा की छठी शताब्दी में इस्लाम का प्रसार हुआ, धर्म युद्ध के रूप में रक्तपात हुए, तब भी भारत में यह परंपरा यथावत रही।आधुनिक युग में तथाकथित बौद्धिक लोगों ने इस पर तर्क वितर्क किए, तब भी यहां की अधिसंख्य जनता अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से जुड़ी रही। सरल हृदय भारतीय मूर्तियों में मौजूद प्राण तत्व से स्वयं के मन प्राण को जोड़ेते हैं।
रामकृष्ण परमहंस जैसे विलक्षण संत मां काली की मूर्ति से घंटों बातें करते थे। शुरु के दिनों में लोग उन्हें गलत समझते थे। मां काली को भोग लगाना उनकी दिनचर्या थी। भोजन की थाली लेकर मंदिर के गर्भ गृह में घुसते तो निश्चित नहीं था कि कब निकलेंगे। एक दिन उनकी पत्नी शारदा उन्हें ढूंढते हुए मंदिर जा पहुंची। श्रद्धालु जा चुके थे और परमहंस भोग लगा रहे थे। उन्होंने दरवाजे के अंदर झांका तो स्तब्ध रह गईं। साक्षात मां काली रामकृष्ण के हाथों से भोजन ग्रहण कर रही थीं। उस दिन से स्वयं माता शारदा का जीवन बदल गया।
यहां मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा का विधान है।अटल श्रद्धा के इसी अदृश्य महाविज्ञान ने आज तक हिंदू प्रतिमाओं को जीवंत और मूर्ति पूजा की परम्परा को अक्षुण्ण बनाए रखा है।
गीता परिहार
अयोध्या