कवितालयबद्ध कविता
मैं महालक्ष्मी, धन की शक
मैं महालक्ष्मी, धन की शक्ति
पालनकर्त्ता हरि की शक्ति
मैं ही हूँ सम्पूर्ण प्रकृति
जल-थल, जड़-चेतन की शक्ति
तुम खूब करो मेरी भक्ति
भक्ति में ही सिमटी शक्ति
बने दीपमाला जन-जन की
भावना की अभिव्यक्ति
प्राकट्य दिवस आज मेरा
तुम करो प्रशस्त मार्ग मेरा
जल उठे दीप नवचेतना का
मिट जाये जड़ता का अँधेरा
तुम आवाहन करते जब भी
मैं दौड़ी-दौड़ी आती हूँ
पर जाने क्यों ठिठककर
अक्सर मैं रह जाती हूँ
इन भयंकर विस्फोटों से
मेरा वाहन भय खाता है
यह प्रचंड विकरित प्रकाश
आँखों में चुभ सा जाता है
आरोग्य-लक्ष्मी बन पवन
के कण-कण में मैं रहती हूँँ
इस धूम्रकेतु के हर प्रहार को
चुपके-चुपके सहती हूँ
विषपान किया था शिव ने जब
तब ही तो मैं जग में आयी
उस नीलकंठ रूपी तरु की
हर शाख आज है मुरझायी
मैं ही हूँ माँ अन्नपूर्णा
ममता की गोदी वसुंधरा
करती आहत मेरे तन को
विषवृष्टि की यह परम्परा
मैं ही गौ माता बनकर
प्राणों में अमृत भरती हूँ
इस बिखरे विष के कण-कण को
खा-खाकर फिर मैं मरती हूँ
धरती को स्वर्ग बनाने को मैं
आयी थी बनकर गंगा
दूषित करता मुझे भगीरथ
के बेटों का खेल ये नंगा
इस चकाचौंध से दूर वहाँ
उस ओर अँधेरा सन्नाटा
इधर भरे भंडार, उधर
कंगाली में गीला आटा
खुद बनो मशाल न्याय की तुम
अन्याय का अँधियारा काटो
कुंठाओं में मुस्कान भरो
और जन-जन में खुशियाँ बाँटो
तुम मुझे बुलाओ शुभ पथ से
और करो विदा भी शुभ पथ पे
और मिटे तिमिर जनमानस का
जल उठे दीप कर्म पथ पे
तुम मुझे बुलाते, पर मेरे
स्वामी को भूल जाते हो
मैं उल्लू पर चढ़कर आती हूँ
और तुम उल्लू बन जाते हो
तुम मुझे बुलाओ स्वामी संग
तो मैं गरुड़ पर आऊँगी
और छोड़ चंचला रूप सदा
मैं घर-घर में बस जाऊँगी
द्वारा: सुधीर शर्मा