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तारे जमीन पर - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

तारे जमीन पर

  • 189
  • 12 Min Read

( इस वर्ष जहाँ महाव्याधि ने मानव की खुशियों को किसी न किसी रूप में निगला हे, एक अद्भुत संयोग भी बना है कि दीपावली और बालदिवस एक साथ आये है. इन दोनों को एक साथ समेटकर मैंने अपने मनोभावों को बिखेरा है, बनाकर "तारे जमीन पर " कुछ इस तरह......)

तारे जमीन पर,
ये इतने सारे जमीन पर
आसमान के रूहानी से
नीले आँचल से बिखरकर

चमचमाते रेत के कुछ
झिलमलाते से कण बनकर
सृष्टि-सरित के तीर पर
ये तारे जमीन पर

मासूमियत की बंदगी की
जगमगाती रोशनी में नहाकर
खिलखिलाती सी हँसी की
शीतल सी गंगा बहाकर
हाँ, बस खुदा के ही नूर से
बनकर, सँवरकर, निखरकर
नाउम्मीदी के अँधियारे में
एक उजियारा भरते हैं उम्मीद बन
ये तारे जमीन पर

स्वर्ग की स्वर्णिम सीढी़ से
हौले-हौले उतरकर
बरकत के, मुबारक से,
नन्हे से कुछ कदम बनकर,
कुछ इधर और कुछ उधर
इस धरती के कण-कण में
जनमन में बरबस
रच-बसकर क्षण-क्षण में
लौटाने इंसानियत के
डगमगाते से कदमों को
वापस उसी यकीन पर
जाने कहाँ से इतने सारे
ये सब तारे जमीन पर

हाँ, ये दुनियादारी की
स्वार्थपूर्ण जड़ता पर
बनते हैं एक जीत
अल्हड़ सी मासूमियत की

बन जाते हैं हैवानियत के
पंजे के काले साये में भी
आकर जाने कहाँ से
जीती-जागती सी तस्वीर
जाने कब इंसानियत की

जीवन में धूप-छाँव सी,
कुंठा और तनाव की
घुटन में बनकर सदा
पुरवाई का एक झोंका
हर एक उदासी को भगाते
बनकर खिलखिलाने का
एक मासूम सा मौका

सच्चे मन की एक पाँती बन
हर घर में हर रात दीवाली सी,
खुशियों की बन सुबह निराली सी
ले आते हैं, प्रेम की एक बाती बन,
खुशियों के नन्हे-मुन्ने से ये दीपक
प्यार की एक नाजुक सी
जंजीर बन,
ये तारे जमीन पर

मगर ना जाने कुछ कैसे,
बुझ गये जलने के पहले,
मिट गये पलने के पहले
भ्रूण-हत्या या कुपोषण से
या फिर किसी ना किसी
तरह के शोषण से
कुछ गुदडी़ के लाल
पडे़-सडे़ किसी घूरे पे
पलते हैं अनाथ बन
जीवन भर अधूरे से

या फिर अभावों से लाचार,
हो गये हैं जिन्हें पालने वाले हाथ,
बदकिस्मती से बेरोजगार,
डूब गये हैं गुरबत के
अँधियारे में जाने कैसे
जो कभी ना हो पाये
आबाद और गुलजार

उन सबको भी हम ना भुलायें
घर-आँगन में उनके भी
खुशियों के कुछ फूल खिलायें
दीवाली का उजियारा
उनके उदास जीवन में भी
जितना कुछ, चाहे जैसे भी,
हो सके तो फैलायें
हाँ, जल जायें उनके
घर की मुँडेर पर भी
माँ लक्ष्मी के वरदहस्त से
समृद्धि के कुछ उजले,
टिमटिमाते ही सही
पर बिंदास मुस्कुराते
नन्हे-मुन्ने से सितारे,
जिंदगी पे यकीन के
वो भी आज ना रहें
गमगीन से

नीली छतरी वाले, भेजो
खुदा की इनायत के,
कुदरत की एक बेशकीमती
अमानत के कुछ मोती,
अंधकार में दिव्य ज्योति
बनकर बिखरे से कुछ मोती,
अब तक मरहूम, रोशनी से,
उस बदनसीब जमीन पर
चमके तेरे चाँद-सितारे
हर दम, हर पल
जर्रे-जर्रे पर
कुछ तारे जमीन पर

द्वारा: सुधीर अधीर

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