कवितालयबद्ध कविता
फूलों में भी कीड़े होते हैं।
पत्थरों में भी दरारे होती हैं।
जैसा चरित्र होता है।
वैसा ही मित्र होता है।
शुद्धता तो वाणी में होती है,
शरीर कहां पवित्र होता है।
बुराइयां भी कभी सुहाने लगती हैं।
इंसानियत भी हर, पल मजहब बदलती है।
जैसा कर्म होता है।
वैसा ही धर्म होता है।
पहचान तो व्यवहार में होती है,
नाम का कहां अर्थ होता है।
कभी धूप में तपन लगती है।
कभी धूप ही सुकून देती है।
जैसा समय होता है।
वैसा ही निर्णय होता है।
स्थितियां ही तो करवट लेती हैं,
जीवन कहां प्रलय होता है।
हिमखंड से रिसता हुआ भी जल है।
नाली में बहते कीचड़ में भी जल है।
जहां से उद्गम होता है।
वह अनिभिज्ञ रह जाता है।
बस मायने तो आगे का सफर है,
अतीत कहां पूछा जाता है।
शिवम राव मणि