कहानीसामाजिकप्रेरणादायक
क्रोधित होती नीलिमा को देख, स्त्री कभी गोद में उठाए बच्चे को अपने सीने से चिपका लेती तो कभी तीनों लड़कियों को अपने आंचल में ढांपने की नाकाम कोशिश करने लगी।
कुछ क्षण पश्चात, नीलिमा की प्रश्नसूचक निगाहों का उत्तर देते हुए स्त्री बोली,
"ये दो लड़कियां मेरी जुड़वां बेटियां हैं।"
" यह बेटा ?" गोद में लिए बेटे की ओर इशारा कर नीलिमा ने पूछा। "
"मेरे देवर का है और यह लड़की भी।" स्त्री ने तीसरी बच्ची की ओर इशारा किया। "चार महीने हुए, यहाँ काम ढूंढने आया था,अपनी बीवी और बच्चों को लेकर। मगर एक भयानक सड़क हादसे में दोनों मियां - बीबी चल बसे और ये दोनों अभागे बच गए।" स्त्री का दर्द आँखों से छलका।
"ताई जी, पेट में दर्द हो रहा है।"उस बच्ची ने स्त्री की ओर कातर नज़रों से देखा।
"ऐसे सुनसान क्षेत्र में, अकेले बच्चों के साथ किसी के भी दरवाजे पर दस्तक दे देना, क्या तुम्हें डर नहीं लगता?"
नीलिमा को अपने उपन्यास " भूख " के खलनायक पात्र का स्मरण हो आया, जिसने, नायिका को उसके पेट की भूख मिटाने का लालच देकर अपनी शारीरिक भूख मिटाई थी।
"माँ, भूख लगी है..।"
नीलिमा को स्त्री की बच्ची के स्वर, " भूख " की नायिका के स्वर से मेल खाते लगे।
"भय तो लगता है। मगर...।" स्त्री अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि उसकी बड़ी बेटी ने उसे झकझोरा।
"माँ रोटी, देखो,, उधर देखो रोटी.. अंकल के हाथों में।"
मेजर साहब के हाथों में खाना देख, बच्चों की आँखों में भी भूख उतर आई थी।
"आओ तुम सब। इधर आकर छांव में बैठो।" मेजर साहब ने स्त्री और बच्चों को घने पेड़ की छांव में बैठने का इशारा किया और उनके आगे खाने से भरी थालियां रख दी।
बच्चों ने आव देखा न ताव, खाने पर बुरी तरह से टूट पड़े।
"नीलिमा, ये तुम्हारी किसी कहानी के काल्पनिक पात्र नहीं है और न ही इनकी भूख काल्पनिक है.. तुम अपने अल्फाजों से किताब के पन्ने भर सकती हो मगर, इनका पेट नहीं।" मेजर साहब ने नीलिमा को उसके कहानियों के संसार से बाहर लाने की चेष्टा की।
नीलिमा को अब स्वयं पर शर्म आ रही थी। वास्तविक गरीबी और भूख को साक्षात अपने सामने पाकर, नीलिमा की आँखों से अविरल धारा बहने लगी।
"आप सब आराम से खाइए.. मैं और खाना लेकर आती हूँ।" पश्चाताप के आंसू पोंछती नीलिमा, भीतर, और खाना लेने चल दी।
लक्ष्मी मित्तल