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भावना
मीनाल एक बहुत ही जिज्ञासु बच्ची है। रोजाना मेरे साथ मंदिर जाती है और बड़े गौर से हर चीज को देखती है। बहुत सवाल करती है, मुझे उसका इस तरह सवाल करना बहुत अच्छा लगता है। आज गोवर्धन पूजा वाले दिन जब उसने मंदिर में भगवान के आगे सजाए गए छप्पन भोग देखें, तो उसने मुझसे सवाल किया।
क्या यह सारा वह भगवान खा रहे हैं,यदि भगवान भोग खा रहे हैं, तो यह भोग समाप्त क्यों नहीं हो जाता और यदि नहीं खाते हैं , तो भोग लगाने का क्या लाभ ?
इसका उत्तर देना इतना आसान नहीं था। मैंने उसके सवाल का इस उदाहरण से उतर समझाया।
किसी गाँव में एक साधु रहता था जो दिन भर लोगों को उपदेश दिया करता था। उसी गाँव में एक नर्तकी थी, जो लोगों के सामने नाचकर उनका मन बहलाया करती थी।
अक्सर मंदिर की घंटी की आवाज सुनकर नर्तकी प्रभु के दर्शन को मन में सोचती थी, वहीं साधु नर्तकी के घर से आने वाले ढोल, हारमोनियम की आवाज़ को सुनकर सोचता कि काश मैं भी नर्तकी का नाच देख पाता ! लेकिन समाज के डर से दोनों की इच्छा बस इच्छा ही रह गयी।
एक दिन गाँव मेँ बाढ़ आ गयी और दोनों एक साथ ही मर गये। मरने के बाद जब ये दोनों यमलोक पहुँचें तो इनके कर्मों और उनके पीछे छिपी भावनाओं के आधार पर इन्हें स्वर्ग या नरक दिये जाने की बात कही गई। साधु खुद को स्वर्ग मिलने को लेकर पूरा आश्वस्त था। वहीं नर्तकी अपने मन में ऐसा कुछ भी विचार नहीं कर रही थी। नर्तकी को सिर्फ फैसले का इंतज़ार था।
तभी घोषणा हूई कि साधु को नरक और नर्तकी को स्वर्ग दिया जाता है।
इस फैसले को सुनकर साधु गुस्से से यमराज पर चिल्लाया और क्रोधित होकर बोला, “यह कैसा न्याय है, महाराज? मैँ जीवन भर लोगों को उपदेश देता रहा और मुझे नरक नसीब हुआ! जबकि यह स्त्री जीवन भर लोगों को रिझाने के लिये नाचती रही और इसे स्वर्ग दिया जा रहा है, ऐसा क्यों?”
यमराज ने शांत भाव से उत्तर दिया ,” यह नर्तकी अपना पेट भरने के लिये नाचती थी लेकिन इसके मन में यही भावना थी कि मैं अपनी कला को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर रही हूँ जबकि तुम उपदेश देते हुये भी यह सोचते थे कि काश तुम्हे भी नर्तकी का नाच देखने को मिल जाता !
"हे साधु ! लगता है तुम ईश्वर के इस महत्त्वपूर्ण सन्देश को भूल गए कि इंसान के कर्म से अधिक कर्म करने के पीछे की भावनाएं मायने रखती हैं। अतः तुम्हे नरक और नर्तकी को स्वर्ग दिया जाता है। “
इसलिए हम जो यह भगवान को नहला ना भुलाना वस्त्र पहनाना सजाना और भोग लगाना इत्यादि करते , उसके करने के पीछे की नियत हमारा प्रभु की हर संभव सेवा करना होता है। हम यह मानते हैं कि प्रभु ने भोग चख लिया है। उनके प्रताप से भोग वैसे का वैसे ही रखा है जो उनके भक्तों में बंट जाना चाहिए प्रसाद के रूप में। इसमें मुख्य है कि हमारी भावना कैसी है, यदि हमारी भावना नर्तकी की भावना जैसी है तो अवश्य ही हमें इन कार्यों से पुण्य की प्राप्ति होगी।
मुझे लगा किमी मीनल ने
मेरी भावना को समझ लिया है क्योंकि उसके बाद उसने कोई और प्रश्न नहीं किया।
गीता परिहार
अयोध्या