कहानीलघुकथा
फ़ैसला
"मुझे नाश्ता नही करना" कहते हुए आशीष दरवाज़ा जोर से बंद करते निकल गए.
कुछ दिनों से हर सुबह मेरे घर में क्लेश होते है, ना कोई नाश्ता करता ना कोई एक दूसरे से बात करता.
मेरी और आशीष के विवाह को दस बर्ष हो गए, सारे सुख सुविधाओं से भरा मेरा घर सुना रहता है जहाँ सिर्फ़ एक दूसरे को भला बुरा कहने की ही आवाज़ आती है क्योकि दस बर्ष के बाद भी हम संतान सुख से वंचित है.
हमारा प्रेम विवाह था जिसके कारण सास ससुर के नज़रों में मैं सिर्फ आशीष की पत्नी ही बन कर रह गई, मेरा माँ ना बनना ये वज़ह काफ़ी थी मुझसे और नफ़रत की...उनके ऐसे व्यवहार ने मुझे कभी इतना प्रभावित नही किया क्योकि आशीष का प्रेम मुझे हर कठिनाई से बाहर निकालने में सक्षम था लेकिन आजकल आशीष के ऊपर दूसरे विवाह करने के लिए मानसिक दबाव बढ़ रहा था जिस की वज़ह से मैं आशीष से दूर होने लगी थी, सास ससुर के ताने सुनकर मैं डिप्रेशन की ओर बढ़ती जा रही थी इन सब के बीच आशीष की चुप्पी...ज़िन्दगी जैसे अज़ाब बन कर टूट पड़ी थी,मैं कमरे में कैद हो गयी थी, सास के तानों में दिनोंदिन इज़ाफ़ा होता जा रहा था, आज भी सुबह आशीष को दूसरी शादी के लिए मनाया जा रहा था जिससे आशीष नाराज़ हो कर बिना कुछ खाये पीये ऑफिस के लिए निकल गए.
शाम को ऑफिस से आशीष आए, मुझे कमरे से बैठक में ले कर आए जहाँ माँ, पिता जी चाय पी रहे थे, आशीष और मैं वही सोफ़े पर बैठ गए.
"माँ, पिता जी..आप लोगो को मैं अपना फैसला सुनाना चाहता हूं जिसको सुनने के लिए आप लोगो काफ़ी दिनों से परेशान है और इस वज़ह से हमारी ज़िंदगी से ख़ुशी चली गयी है....आप दोनो के लिए हमारे मन में बहुत आदर एवं सम्मान है, वैसे ही मेरे ह्रदय में मुग्धा के लिए प्रेम है, मैं दस बर्ष पहले इसका हाथ थाम कर इस घर में इस विश्वास के साथ लाया की आप दोनो इसको कभी माँ बाप की कमी महसूस नही होने देंगे, मुग्धा ने कभी आपका अपमान नही किया,आपके दिए हर तानों को चुपचाप सुना..क्यों आप लोग प्रेम, समर्पण, उदारता, सेवा, क्षमा सिर्फ़ बहु में ही क्यों ढूंढते है, ख़ुद के अंदर ये सारी भावनाएं क्यों नही लाते" आशीष बोले जा रहे थे.
"सुखी गृहस्थी की धुरी पति पत्नी के बीच प्रेम और विश्वास होता है आपके अनुसार दूसरी शादी कर के मैं अपनी गृहस्थी की धुरी को ही हिला दूं? मैं मुग्धा के अलावा किसी और के साथ के बारे में सोच भी नही सकता अतः आप लोग आज के बाद इस विषय को भविष्य में कभी नही उठाएंगे" आशीष मेरे तरफ़ देख कर बोले, उनकी आंखों में मेरे लिए अथाह प्रेम दिख रहा था.
"कुछ महीने पहले मैंने और मुग्धा ने एक अनाथ बच्ची के अडॉप्शन के लिए सोचा था, मैंने आज बात कर ली है, कुछ दिनों की क़ानूनी कार्यवाही के बाद हमें अडॉप्शन की मंजूरी मिल जाएगी, अभी कुछ पेपर पर सिग्नेचर के लिए हमें जाना है, मुझे विश्वास है आप दोनो अपने बेटे का साथ देंगे" आशीष की बातों को अब तक माँ पिता जी चुपचाप सुन रहे थे.
"जब तुमने फ़ैसला कर ही लिया है तो अब कुछ भी कहने सुनने का अर्थ नही रह जाता, हम दोनो तुम्हारे फ़ैसले में तुम्हारे साथ है" पिता जी बोले.
माँ अपने कमरे में चली गयी
"माँ को कुछ समय दो, सब कुछ यूँ रातों रात नही बदल सकता है, मैं समझाऊंगा, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा" पिता जी ने पहली बार हम दोनो पर भरोसा जताया.
मैं ख़ुश थी..धीरे धीरे ही सही पर ज़िंदगी शायद अब पटरी पर आ रही है, आज महीनों बाद ख़ुद को सजाया, हल्के मेकअप ,गुलाबी शिफॉन की साड़ी पहन कर जब आशीष के सामने आई तो उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया
"कहाँ छुप गयी थी मेरी ये परी"
"अपनी छोटी परी को ले आने की तैयारी में खोई थी,आज वापस ले आये तुम"
मेरी ख़ुशी मेरे चेहरे पर ग़ुलाबी हो रही थी.
लेखिका.
अनामिका अनूप तिवारी
नोएडा