कविताअतुकांत कविता
विकास
सूखी धार है नदिया की, खींच रही मैं नाव
जल छिछला बस कंकड़-कंकड़ कैसे लगूं मैं पार?
गंगा की सतरंगी रेती, तिस पर खरबूजों की खेती
कहाँ खो गई, रीत गया सब, अब है सूखी धरती।
सूख गए मैदान, बगीचे, ताल-तलैया,झील
देखें कहाँ दादुर,मोर,पपीहा औ हंसों की केलि ?
गरजा मेघ, चमकी दामिनी,चली बयार
हरित कानन को लील गई रफ़्तार।
गीता परिहार
अयोध्या