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विकास - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

विकास

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विकास
सूखी धार है नदिया की, खींच रही मैं नाव
जल छिछला बस कंकड़-कंकड़ कैसे लगूं मैं पार?

गंगा की सतरंगी रेती, तिस पर खरबूजों की खेती
कहाँ खो गई, रीत गया सब, अब है सूखी धरती।

सूख गए मैदान, बगीचे, ताल-तलैया,झील
देखें कहाँ दादुर,मोर,पपीहा औ हंसों की केलि ?

गरजा मेघ, चमकी दामिनी,चली बयार
हरित कानन को लील गई रफ़्तार।
गीता परिहार
अयोध्या

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Sarla Mehta

Sarla Mehta 3 years ago

वाह

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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प्रपोजल
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माँ
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