कविताअतुकांत कविता
दौरे जिंदगी
साठ सावन बीते,क्या दौरे ज़िंदगी थी!
वह बचपन की सखियां,वह छुपम- छुपाई।
वो बड़ों की खटियों के नीचे छिपना - छिपाना
वो पकड़े जाने पर चिल्लाना,और बड़ों का गुस्साना !
हर पूर्णिमा को मां का कथा बांचना
हमारा प्रसाद के पेड़ों को आंख बचाकर गटक जाना।
वो अष्टमी की बासी मीठी पूरियों का इंतज़ार
और मां की पूजा का लंबे खिंचते जाना।
सावन की दस्तक और पेड़ों पर झूले पड़ जाना
अपनी बारी की छीना झपटी में चोटिल हो जाना।
अब नहीं है खुली ज़मीन जहां झूला पड़ें
अब मोबाइल है,आभासी मित्र हैं।
चलो, जो है उसी में खुश हो लेते हैं
वरना कहोगे ," साठा सो पाठा"।
मौलिक
गीता परिहार
अयोध्या ( फ़ैजाबाद)