कहानीलघुकथा
अभागे की परिभाषा
बेटे के ब्याह की चहल पहल अभी जारी थी। वंदनवार लहरा रहे थे। सजी धजी नवेली दुल्हन अपने राजकुमार के साथ मगन थी। कई सपने संजो लिए थे। अचानक एक तूफ़ान आया,सड़क दुर्घटना ने सारे सपने रौंध डाले।मेहँदी भरे हाथ मंगलसूत्र उतारने को मज़बूर हो गए।
दिलासा देने वाले हज़ारों थे लेकिन उलाहना देने वाले भी कम नहीं थे। पड़ोसन चाची कहने से नहीं चूकी," बहु के पैर शुभ नहीं,आते ही पति को खा गई। कुंडलियां भी कहाँ मिली थी।"
बेटे के गम में डूबी माँ जैसे तैसे बहु को सम्भाल रही है। वह स्वयं को रोक नहीं पाई," बहन जी आपको याद होगा न,आपकी देवरानी शादी के एक माह बाद ही चल बसी थी। क्या उसे आपके देवर ने खा लिया था ? आपको अभागे की परिभाषा ही शायद मालूम नहीं। मेरी बहु ही मेरा बेटा भी है अब। भगवान ने चाहा तो मेरा बेटा बहु की गोद में पुनः आ जाएगा।"
सरला मेहता