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रिश्तों की भाषा - VIRENDER 'VEER' MEHTA (Sahitya Arpan)

कहानीलघुकथा

रिश्तों की भाषा

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रिश्तों की भाषा
"नहीं समीर,इतना आसान कहां होता है सब कुछ भूल पाना।" वर्षों पहले एक रात अचानक उसे छोड़ कर चले जाने वाला पति आज फिर सामने खड़ा सब भूलने की बात कर रहा था।

"तान्या! मैं मानता हूँ कि मैं तुम्हारे प्रेम को नकारकर 'उसके' साथ चला गया था लेकिन अब मेरा उससे अलगाव हो चुका है और मैं हमेशा के लिए तुम्हारे पास लौट आना चाहता हूँ।" उसकी आवाज और आँखें दोनों में अधिकार भरी याचना नज़र आ रही थी।

"आज तुम लौटना चाहते हो लेकिन उस समय तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा? अगर मेरे मित्र ने साथ नहीं दिया होता तो मैं ऐसे समय में जीवन का सामना कभी नहीं कर पाती।"

"तान्या! अब तुम्हें उसका अहसान लेने की कोई जरूरत नहीं,हम फिर एक साथ रह सकते हैं।" उसने आगे बढ़कर तान्या के हाथ थाम लिए।

"समीर! मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ।" जाने क्यों उसे समीर के हाथों में पति-प्रेम की अपेक्षा एक पुरुष-प्रेम का अहसास अधिक लगा। "तुम्हारे पीछे मुझे कुछ समय अपने मित्र के साथ भी रहना पड़ा और......" समीर का चेहरे पढ़ते हुए तान्या ने सवालियां नजरें उस पर टिका दी। "....हमारे बीच इसे लेकर कभी कोई दुविधा नहीं होगी!"

"तान्या! तुम कैसे भूल गयी कि तुम एक 'ब्याहता'थी!" बदलते भावों के साथ उसकी आवाज भी तल्ख़ होने लगी। "....ये मेरी ही गलती थी जो मैं लौट कर चला आया।" और उसकी प्रतिक्रिया जाने बिना बात पूरी करते-करते वह मुँह फेर चुका था।

वह खामोश खड़ी उसे दूर तक जाते देखती रही... देखती रही। दिल बार-बार कह रहा था। "तान्या! उसे बताओ कि तुम सदा उसकी ही रही हो।" लेकिन जहन,दिल को नकार एक ही बात कह रहा था। "जिस्म की देहरी पर खत्म होने वाले संबंध,निस्वार्थ रिश्तों की भाषा नहीं पढ़ पाते।"
/वीर/

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Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

वाह

दादी की परी
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