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मैं हूँ ना,,,,लंबी कहानी - Sarla Mehta (Sahitya Arpan)

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मैं हूँ ना,,,,लंबी कहानी

  • 190
  • 22 Min Read

" मैं हूँ ना "
कमर पर लटका मोबाइल निकाल नम्बर घुमाकर बोली,
"हाँ भाभी , मैं दो दिन काम पर नहीं आऊँगी , थोड़ा आराम करुँगी। यह है सुमन ताई, कद्दावर कद काठी की। तीखे नयन नक्श व मेहनत की घाम से पका ताम्बई रंग।
चारित्रिक पवित्रता से तांबे में भी सोने की झलक सी है।
अंगूठाटेक है किंतु फोन में नं नाम देखकर ही तुरंत पहचान लेती है कि किसका नं है। कुछ मर्दानी सी बुलन्द आवाज़ ताई ने पाई है।हाँ काम भी दो तीन घरों का ही लेती पर करती बड़ी लग्न से।
कभी ताई अपने आई बाबा,
दो बहनों व भाई के साथ गाँव में रहती थी। बाबा आई बटाई पर जमींदार के यहाँ काम कर
परिवार का गुज़ारा करते। वह पढ़ना चाहती थी पर षोडशी
सुमन को अनपढ़ सियाराम के पल्ले बाँध दिया जाता है।
ससुराल में बेकार पति के कारण उसे ताने मारे जाते हैं।
ऊपर से कोल्हू के बैल की तरह दिन भर ज़ुती रहती।चलो यह तो सहन कर भी लेती किन्तु नशेड़ी पति की मार,गरूर से पूर्ण खुद्दार नारी कैसे सहे।बाबा से लाड़ली की हालत देखी नहीं जाती। वे बेटी को अपने घर ले आते हैं।
गाँव में पुलिस शिकायत यानी
इज्जत का कचरा। बस समाज की पंचायत जो फैसला करे मानो।
एक दिन नशे में धुत् सियाराम सुमन को लेने ससुराल आता है। जैसे ही वह सुमन की चुटैया पकड़
घसीटने लगता है,बाबा बीच
बचाव करते हैं।धक्का मुक्की में वह बाबा को ऐसा गिराता है कि वे पुनः उठ नहीं पाते।
और जंवाइराजा नए ससुराल में सीखचों में बंद हो जाते हैं।
सुमन स्वयं को पिता की मृत्यु का दोषी मान आई तथा भाई बहनों को साथ लिए महाराष्ट्र से दूर एक नए घरौंदे की तलाश में मध्यप्रदेश आ जाती हैं।पारिवारिक
दायित्वों का निर्वहन करते
एक नई ज़िन्दगी की शुरुआत
करती है। भाई बलवंत से कहती है, "बेटा अब तुमहें अच्छे से पढ़लिख कर अच्छे इंसान बनना है।" वह उसे स्कूल में दाखिल करा सब खर्चा उठाती है। किंतु हाय रे किस्मत ! एक पड़ोसी आकर बताता है,"ताई ,तुम भाई पर बेकार अपनी खून पसीने की कमाई बहा रही हो।वह किताबें व घर का सामान बेच दारु पीता है।" बेचारी सुमन
समझाती किन्तु नतीज़ा सिफ़र। जैसे तैसे उसे ठेला दिला काम पर लगाती है। पर निठल्ला भाई कहीं से एक लड़की को ला अलग झोपड़ी
में रहने लगता है।दो बच्चों का पिता भी बन जाता है। अब सुमन भूखे भतीजों का भी पेट भरती है।उसकी सभी
मालकिन भाभियां समझाती है,सुमन ,तू कब तक खटती रहेगी।अपने बारे में भी कभी सोचा कर।ऐसे बीमार मत पड़ जाना " किन्तु ऐसी सलाह मशविरा ये
स्वाभिमानी सुमन कहाँ मानने को तैयार।वह कहती है," मेरे खसम के हिस्से का पश्चाताप तो मुझे ही करना होगा। मेरी आई के लिए तो मैं ही बेटा हूँ।"
अब सुमन की दोनों बहनें भी काम करने लगी हैं। उनके भी तो हाथ पीले करना है। भाई से क्या आशा,वही ढाक के तीन पात। अस्वस्थ आई की सेवा सुश्रुषा करते जुगाड़ से पैसे बचाती तथा त्यौहारों पर इनाम में मिली चीज़े व साड़ियां बचाकर सहेजती।
बड़ी वाली बहन का अपने ही समाज में रिश्ता तय कर देश जाकर ब्याह निपटाती है।
अपने सोने के टॉप्स से बनाए दो मंगलसूत्र के पेंडल भाई से बचाकर सहेली के पास रखे थे।उनमें से एक बहन को पहना विदा कर देती है।
अब जी तोड़ मेहनत करके छोटी बहन के लिए तैयारी शुरु कर देती है। उसका भी ब्याह रचा कुछ राहत महसूस करती है। परंतु कहते हैं ना
बहादुर के पीछे परेशानियां तो आती ही हैं।छोटा जंवाई भी सियाराम जैसा ही निकला।सुमन समझाती है बहन को किन्तु वह तो पतिवृता नारी की तरह पति को छोड़ना नहीं चाहती। माँ सी ताई अवश्य चिंता में रहती है कि बहन कैसी होगी ?
उसके साथ की कामवाली सहेलियां उसे समझाती ,"देख
सुमन,कब तक सबका करती रहेगी।अपने बारे में भी सोच।अभी तक तो तू भी हमारे जैसा छोटा मोटा घर बना लेती। पर तुझे तो बस,कभी राखी का नेग ,कभी बहनों के बच्चों की फरमाइशें।हमारी मान यहां म प्र में अपना घर बसा ले।" सुमन कहां माननेवाली कहती, " मैं तो
ऐसी ही भली।भाग्य अच्छा होता तो वो मुआ सियाराम रावण नहीं बनता।"
हाँ , एक बात में सुमन सभी कामवालियों से अलग है। इतनी लगन से काम करती है कि मज़ाल कोई कमीबेशी
निकले। उसकी साथिनें गुर सिखाती," हमसे कुछ सीख।हम जितने समय में चार घर निपटाते तू एक ही घर को घिसती रहती है। " लेकिन वो है कि मानने को तैयार नहीं। वह अपने उसूलों से समझौता नहीं कर सकती है।ईमानदारी में भी उसकी कोई सानी नहीं।मेडम लोग उसके भरोसे पूरा घर छोड़ दे ,तो भी एक सुई भी इधर उधर नहीं हो सकती। तभी तो उसको काम वाले घरों से ताज़ी खाने की चीजें दी जाती हैं।उन्हें पता है कि सुमन बासा नहीं
खाती है।
सुमन सोचती है चलो गंगा नहाई , एक माँ की ही देखभाल करनी है।पर कहाँ
शान्ति,भाई के दिनरात शराब में डूबे रहने से उसे लीवर का कैंसर हो जाता है।पता नही कब बप्पा उठा ले। ऐसे में
वृद्धा माँ का दुख व भाई के मासूम बच्चे आँखों के सामने घूमने लगते। ताई सोचती,
" भविष्य में यही निशानियां वही पुरानी कहानियां दोहराएगी।" मानो बच्चों की
सूनी आँखे पूछ रही हो," भुआ , हम भी आपके हैं,हमारे लिए कुछ नहीं करोगी ?" और उनकी दबंग भुआ सोचती है , मैं हूँ ना "

सरला मेहता

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Poonam Bagadia

Poonam Bagadia 3 years ago

बहुत ही सुंदर व भावपूर्ण कहानी है आँटी जी ..!?मुझे लगता है थोड़ा निखार आ सकता था व टंकण त्रुटि पर ध्यान दीजिये आँटी जी..! और साथ ही मुझे क्षमा दान भी दीजियेगा..!?????

दादी की परी
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