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अल्मोड़ा का दशहरा
विजयदशमी असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है।
भारत के हर शहर और प्रांत में इसे अपने ढंग से मनाया जाता है। उत्तराखंड के कुमाऊं में बसा एक पहाड़ी शहर है अल्मोड़ा जो कुमाऊ की सांस्कृतिक नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यह शहर घोड़े के नाल के आकार की पहाड़ी पर बसा हुआ है। चंद राजाओं ने इसे स्थापित किया और बाद में अंग्रेजों ने इसका विकास किया।
अल्मोड़े का दशहरे का विश्व प्रसिद्ध है। नवरात्र के आरंभ से ही यहां अलग-अलग मोहल्लों में रामलीला शुरू हो जाती हैं जो सांस्कृतिक मंचन का एक अद्भुत नमूना है। कहते हैं कि राजा उद्योत चंद ने 1687 में अपने महल में दशहरा आयोजित किया था। कई वर्षों तक यह महल तक ही सीमित रहा मगर धीरे-धीरे इसमें जनता की भागीदारी बढ़ी। 1860 में अल्मोड़ा में पहली बार रामलीला का मंचन हुआ। बताया जाता है कि प्रारंभ में हस्तलिखित पांडुलिपियों की सहायता से कलाकार अभिनय करते थे। प्रिंटिंग तकनीकी आने के बाद इसमें काफी परिवर्तन और सुधार आया, पर्दे के पीछे से होने वाला संवाद बंद हो गया और पात्र खुद ही संवाद बोलने लगे।
रामलीला के साथ-साथ अल्मोड़ा के पुतले भी पूरे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। कई मुख्य समाचार चैनल हर वर्ष इनकी कवरेज़ देते हैं। लगभग 30 से अधिक बड़े-बड़े कलात्मक पुतले यहां पर बनते हैं। पहले सिर्फ रावण का ही पुतला बनाया जाता था पर 1976 में शहर के निवासी अख़्तरभारती ने मेघनाद का पुतला स्वयं तैयार किया जो मेरे पिता के भी बहुत अच्छे मित्र थे और बेहद उम्दा आर्टिस्ट थे। सिलसिला जो शुरू हुआ, आज तक जारी है। हाथ से हाथ जुड़ा, एक श्रृंखला बन गई और कई पुतलों का निर्माण होने लगा। सभी पुतलों की कलात्मकता देखते ही बनती है। अल्मोड़ा के कलाकारों की दिल्ली और अन्य बड़े शहरों में भी काफी मांग है। सांस्कृतिक और धार्मिक एकता की यह मिसाल सदा यूं ही कायम रहे।
रामलीला की तालीम की तरह ही विभिन्न पुतलों का निर्माण भी काफी पहले से प्रारंभ हो जाता है। हर मोहल्ले का एक पुतला निर्माण निर्धारित है और वहां के लोग मिलजुलकर चंदा एकत्र कर इसे बनाने में तन मन से जुड़ जाते हैं। धीरे-धीरे यह पर्व एक महोत्सव में बदल चुका है। सबसे रोचक बात यह है कि रावण पूरे शहर में सिर्फ एक ही बनता है। रावण के अतिरिक्त मेघनाथ, कुंभकरण, ताड़का, मारीच, अहिरावण, शुंभ-निशुंभ, लवणासुर, मयंतक, देवांतक अक्षय कुमार, खर- दूषण और सुबाहु आदि के कलात्मक पुतले विभिन्न मोहल्लों में तैयार किए जाते हैं और विजयदशमी के दिन इन्हें पूरे शहर में घुमाया जाता है इनके साथ राम,लक्ष्मण, सीता और सेवा में हनुमान की सुंदर झांकी भी निकाली जाती है। अंत में स्टेडियम में पुतला दहन किया जाता है। इन पुतलों को देखने के लिए पर्यटक और आसपास के गांवों से भी भारी संख्या में लोग शहर में एकत्र होते हैं। सड़कों में तिल रखने की भी जगह नहीं होती। घरों की छतों से, बालकनी से भी लोग इस अद्भुत नज़ारे को देखने घंटों खड़े रहते हैं। राम सीता के रथ पर पुष्प वर्षा करते हैं। पूरा वातावरण राममय हो जाता है। इस वर्ष शायद यह पहला अवसर हो जब महामारी के कारण यहां पर यह पर्व इतनी धूमधाम से नहीं मनाया गया हो। खैर, हम सदा से आशावादी रहे हैं और उम्मीद करते हैं कि अगले वर्ष फिर पूर्व की ही तरह धूमधाम से यह महोत्सव आयोजित होगा।